25 नवंबर, 1956 की तारीख भारतीय राजनीतिक इतिहास का एक ऐसा दिन है जो आज भी नैतिकता और जिम्मेदारी की मिसाल के तौर पर याद किया जाता है। उस दिन, तत्कालीन रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने अय्यप्पन रेल हादसे की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया। उनका यह कदम आज भी भारतीय राजनीति में एक आदर्श की मिसाल माना जाता है।
अगस्त 1956 में, आंध्र प्रदेश के महबूबनगर में एक बड़ी रेल दुर्घटना हुई, जिसमें 112 लोगों की मौत हो गई थी। दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए तत्कालीन रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने अपना इस्तीफा प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को सौंप दिया, लेकिन नेहरू ने शास्त्री को अपना इस्तीफा वापस लेने के लिए मना लिया।
वैसे देश में हर रेल हादसे के बाद विपक्ष रेल मंत्री से अक्सर इस्तीफे की मांग करता रहा है। हालांकि देश के इतिहास में रेल हादसे की वजह से आज तक केवल दो रेल मंत्रियों ने ही अपने पद से इस्तीफे दिए हैं। इनमें एक लाल बहादुर शास्त्री और दूसरे नीतीश कुमार थे।
पहला इस्तीफा नामंजूर होने के एक महीने बाद ही बाद 23 नवंबर, 1956 को तमिलनाडु के अरियालुर जिले में एक और रेल दुर्घटना घटित हो गई। इसे अय्यप्पन रेल दुर्घटना के नाम से याद रखा जाता है। यह भारतीय रेलवे के इतिहास की सबसे भीषण दुर्घटनाओं में से एक थी। इस हादसे में ट्रेन पटरी से उतरकर एक जलाशय में जा गिरी, जिसमें 140 से ज्यादा लोगों की जान चली गई थी।
यह घटना 23 नवंबर 1956 की सुबह 4.30 बजे की है। जब थूथुकुडी एक्सप्रेस ट्रेन, अरियालुर रेलवे स्टेशन से दो मील की दूरी पर मरुदैयारु नदी पर पुराने पुल के खंभे से होकर गुजर रही थी। उस वक्त नदी में तेज उफान था और झमाझम बारिश भी हो रही थी। नदी का पानी पुल की पटरियों को लगभग छू रहा था। तभी सुबह करीब 4.30 बजे के करीब अचानक से पुराने खंभों पर बना पुल लगातार बारिश और उफान की वजह से दुर्घटनाग्रस्त हो गया और इसी दौरान ट्रेन का स्टीम इंजन और सात डिब्बे नदी में गिर गये। गौरतलब है कि थूथुकुडी एक्सप्रेस के दुर्घटनाग्रस्त होने से ठीक आधे घंटे पहले, एक दूसरी ट्रेन पुल पार कर चुकी थी। इसमे 200 से ज्यादा यात्री लापता भी हो गये थे। पानी के तेज बहाव के कारण उनके शव तक नहीं मिले।
हादसे के बाद देशभर में शोक और आक्रोश की लहर थी। ऐसे में शास्त्री जी ने न केवल घटना के कारणों की जांच सुनिश्चित की, बल्कि इस हादसे की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद से फिर इस्तीफा देने का निर्णय लिया।
उनका यह कदम केवल एक औपचारिकता नहीं था, बल्कि यह उनकी उस ईमानदारी और सेवा भावना का प्रतीक था जो उन्होंने अपने पूरे राजनीतिक जीवन में बनाए रखी।
शास्त्री द्वारा पेश किए गए इस दूसरे इस्तीफे के बाद ढेरों सांसदों ने नेहरू से शास्त्री को नहीं जाने देने की अपील की। उनका विचार था कि शास्त्री को इस्तीफे की पेशकश के लिए सराहना की जानी चाहिए, लेकिन उनके इस्तीफे को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि वे दुर्घटना के लिए व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार नहीं थे। दुर्घटना तकनीकी खराबी के कारण हुई थी जिसकी जिम्मेदारी रेलवे बोर्ड को लेनी चाहिए।
सांसद स्पष्ट थे कि दोष नौकरशाही को लेना चाहिए न कि राजनीतिक कार्यपालिका को। हालांकि, नेहरू ने शास्त्री का इस्तीफा स्वीकृति के लिए राष्ट्रपति को भेज दिया।
उन्होंने इस्तीफा स्वीकारते हुए संसद में कहा कि वह इस्तीफा इसलिए स्वीकार कर रहे हैं कि यह एक नजीर बने। इसलिए नहीं कि हादसे के लिए किसी भी रूप में शास्त्री जिम्मेदार हैं।
शास्त्री जी के इस निर्णय ने भारतीय राजनीति में नैतिकता और जिम्मेदारी का नया मानदंड स्थापित किया। उनका मानना था कि नेता को केवल अपने अधिकारों का नहीं, बल्कि अपनी जिम्मेदारियों का भी पूरा ध्यान रखना चाहिए। उन्होंने कभी सत्ता को साधन नहीं, बल्कि सेवा का माध्यम माना।
आज जब राजनीति में नैतिकता और जिम्मेदारी अक्सर पीछे छूटती दिखती है, शास्त्री जी का यह कदम और भी प्रासंगिक हो जाता है। उनके द्वारा दिखाया गया यह उदाहरण हमें यह सिखाता है कि नेतृत्व केवल फैसले लेने का नाम नहीं है, बल्कि जनता के प्रति उत्तरदायी होने का भी नाम है। उनके द्वारा उठाया गया कदम यह साबित करता है कि वे न केवल एक आदर्श राजनेता थे, बल्कि सच्चे अर्थों में जनता के सेवक थे।
शास्त्री जी की यह कहानी हमें प्रेरित करती है कि जीवन में चाहे जो भी स्थिति हो, नैतिकता और कर्तव्यनिष्ठा का पालन करना ही सच्चा नेतृत्व है।