क्रिकेट वर्ल्ड कप मैचों के बीच मुथैया मुरलीधरन की बायोपिक रिलीज की गयी है जो लीजेंड्री क्रिकेटर की जिंदगी दिखाने के लिए एकदम सही मौका है लेकिन क्रिकेट के मैदान पर जो रोमांच नजर आता है वो मुरली की बायोपिक में गायब है। फिल्म मे काफी बिखराव नजर आता है।
इस फिल्म की शुरुआत 1945 के श्रीलंका से होती है, मुरलीधरन के जन्म से लगभग तीन दशक पहले। यह तब था जब तमिलनाडु से बंधुआ मजदूरों को श्रीलंका भेजा गया था। 800 हमें श्रीलंका के मैदानों में ले जाती है, जहां मुरलीधरन का परिवार अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहा है, जबकि युवा मुरली गेंद पकड़ता है। एक हास्टल में, जहाँ उसे एक युवा लड़के के रूप में भर्ती कराया गया था। संघर्ष बहुत था लेकिन मुरली को बस एक गेंद चाहिए थी जिससे वह सिर्फ गेंदबाजी करना चाहता है ।
मैदान में गेंदबाजी को लेकर उनके एक्शन पर कई बार सवाल उठे। लेकिन इसके अलावा उनकी नागरिकता भी उनके पहचान के आड़े आती थी। दरअसल, मुरली के पूर्वज भारत से जाकर श्रीलंका बस गए थे। उन्हें वहां की नागरिकता मिलने में बहुत समय लगा था।
एक जगह पर, मुरलीधरन का दावा है कि यह इस बारे में नहीं है कि वह श्रीलंकाई या तमिल हैं, बल्कि यह कि वह एक क्रिकेटर हैं। जिस पर, उनके पिता जवाब देते हैं, “अगर हम अपनी पहचान खुद तय कर सकें, तो यहां कोई समस्या नहीं होगी।” फिल्म मुरलीधरन के आंतरिक संघर्षों को टटोलती है। उदाहरण के लिए, जब वह श्रीलंका के एक तमिल व्यक्ति को ऑटोग्राफ देता है, तो वह व्यक्ति व्यंग्यपूर्वक पूछता है कि क्या वह कभी तमिल बोलते है।
फिल्म के कुछ शानदार पहलू भी हैं जैसे फिल्म में मुथैया मुरलीधरन की भूमिका निभाने वाले मधुर मित्तल किरदार के लिए सटीक कास्टिंग हैं। उन्होंने मुथैया की जिंदगी को बहुत शिद्दत के साथ पर्दे पर उतारा है।
श्रीलंकाई क्रिकेटर अर्जुन रणतुंगा के साथ उनके संबंधों को बेहद खूबसूरत से दर्शाया गया है, लेकिन टीम के बाकी खिलाडि़यों के साथ उनके संबंधों पर कोई बातचीत नहीं है। ये एक अच्छा angle हो सकता था जिसपे बात होनी चाहिए थी।
अधिकांश स्पोर्ट्स बायोपिक्स के निर्माताओं के पास नायक के जीवन के अहम पहलुओं को चुनने और उसे बड़े पर्दे पर एक संग्रह के रूप में प्रस्तुत करने का कठिन काम होता है। 800 के निदेशक एम एस श्रीपति के लिए भी यही समस्या रही, जिन्होंने मुरलीधरन के जीवन पर रिसर्च करने में बहुत अच्छा काम किया है, कयी एंगल से मुरली पहचान की तलाश, जुनून की तलाश और उनकी क्रिकेट यात्रा में आयी बाधाओं को निचोड़ने की कोशिश तो अच्छी-खासी की गई है लेकिन फिर करके, श्रीपति की फिल्म में एक खास फोकस की कमी लगी, फिल्म बिखरी बिखरी सी नजर आयी।