1975 की एक तपती हुई जून की दोपहर थी। दिल्ली का आसमान धुएं से भर गया था, और हर चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ़ दिखाई दे रही थीं। इंदिरा गांधी की सरकार ने पिछले दो साल से देश में आपातकाल लागू कर दिया था। पुलिस की गाड़ियाँ लगातार गश्त कर रही हैं और हर जगह चौकसी बढ़ा दी गई है।
25 June 1975 सुबह सुबह, अचानक रेडियो पर एक खास घोषणा प्रसारित की गई। ‘भाइयो और बहनो, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है।’ पूरे देश ने रेडियो पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को ये कहते हुआ सुना तो सब स्तब्ध रह गए ऐसा लगने लगा मानो किसी ने जबरन आप मुंह दबा दिया हो ताकि आप साँस ही ना ले सकें। सब एक-दूसरे से पूछ रहे थे कि अब क्या होगा। 25 और 26 जून की रात में तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के हस्ताक्षर करने के साथ ही देश में आपातकाल लागू हो गया था।
घोषणा के कुछ ही घंटे बाद, शहर की सड़कों पर पुलिस और सेना के जवान तैनात हो गए थे। हर गली, चौराहा, और बाजार पर कड़ी निगरानी रखी जा रही थी। लोग अपने घरों में दुबक कर बैठ गए थे। न तो कोई आवाज, न ही कोई हलचल। यह ऐसा था जैसे समय ठहर सा गया हो।
इमरजेंसी के अगले कुछ दिनों में, सरकार ने विपक्ष के नेताओं, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करना शुरू कर दिया। प्रेस, सिनेमा और कला पर भी रोक लगाई गई। पुलिस बिना किसी चेतावनी घरों मे आती और जिसे चाहे उसे जेल जा कर ठूंस देती। इमरजेंसी का असर सिर्फ राजनीतिक और सामाजिक नहीं था, बल्कि इसका असर आम जनजीवन पर भी पड़ा। रात के समय कर्फ्यू लगा दिया गया था। लोग अपने घरों से बाहर निकलने से कतराते थे। नौकरीपेशा लोग और छोटे व्यापारी, सब अपने भविष्य को लेकर चिंतित थे। हर तरफ अनिश्चितता का माहौल था। चुनाव स्थगित कर दिए गए थे और कई लोग मारे जा रहे थे जिसे रिपोर्ट तक नहीं किया जा पा रहा था। इससे भारत की आर्थिक विकास दर की रफ्तार धीमी हुई। वैसे तो ये भारत का तीसरा आपातकाल था लेकिन ये सही मायनों मे आपातकाल से ज्यादा सरकार की तानाशाही का जीता जागता उदाहरण था।
जो भी इंदिरा गांधी की नीतियों का विरोध करता, उसे बिना किसी मुकदमे के जेल में बंद कर दिया जाता। जेलों में उन दिनों भयंकर हालात थे। राजनैतिक कैदियों को बिना किसी अधिकार के रखा जाता, और उन पर अमानवीय अत्याचार किए जाते।
आपातकाल के दौरान सबसे ज्यादा कुख्यात हुआ ‘नसबंदी अभियान’। यह सरकारी कार्यक्रम था जिसमें बड़े पैमाने पर पुरुषों की जबरदस्ती नसबंदी की जा रही थी। सरकारी कर्मचारियों को टारगेट दिए गए थे, जिन्हें पूरा करने के लिए वे गरीबों और मजदूरों को पकड़कर उनकी नसबंदी कर देते थे।
आपातकाल के दौरान व्यक्तिगत अधिकारों का भीषण हनन हुआ। हर व्यक्ति की जासूसी की जा रही थी। लोगों के फोन टैप किए जा रहे थे, और उनकी चिट्ठियाँ पढ़ी जा रही थीं। यहां तक कि घरों में भी पुलिस बिना वारंट के घुसकर तलाशी लेती थी।
सुधा, एक कॉलेज की प्रोफेसर, ने उस दौर को याद करते हुए बताया, “हर समय हमें डर लगा रहता था। हम सोचते थे कि कब कौन हमारे दरवाजे पर आ धमकेगा। हमें पता नहीं था कि कब हमें जेल में डाल दिया जाएगा। हम अपने बच्चों को भी स्कूल भेजते समय डरते थे।”
इमरजेंसी के कुछ महीनों बाद, लोगों के भीतर एक प्रतिरोध की भावना जागृत होने लगी। जगह-जगह गुप्त रूप से बैठकें होने लगीं, और सरकार के खिलाफ आवाज उठाई जाने लगी। यह प्रतिरोध धीमा लेकिन मजबूत था। लोग अब खुलकर बोलने लगे थे और अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए तैयार थे। सड़कों पर चलने वाले हर व्यक्ति के मन में यही सवाल घूम रहा है, “क्या यह देश का भविष्य है?” लोग चुपचाप एक दूसरे से नज़रें मिलाते, मानो आँखों में ही सारी बातें कह रहे हों। किसी को विश्वास नहीं हो रहा कि लोकतांत्रिक देश में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
लोगों के दिलों में आक्रोश बढ़ रहा था। धीरे-धीरे लोग सड़कों पर उतर आए। छात्रों और युवाओं का एक बड़ा समूह विरोध प्रदर्शन कर रहा था। “लोकतंत्र की रक्षा करो!” “इंदिरा गांधी मुर्दाबाद!” के नारे हर गली और चौराहे पर गूंज रहे थे। पुलिस उन पर लाठियाँ बरसाती, आंसू गैस के गोले छोड़ती, लेकिन वे रुके नहीं।
एक दिन की बात है, जब दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्रों का एक बड़ा समूह इंडिया गेट पर विरोध प्रदर्शन कर रहा था। चारों तरफ से पुलिस ने घेर लिया और लाठियाँ बरसानी शुरू कर दीं। छात्रों के सिरों से खून बहने लगा, लेकिन वे अपने स्थान से हिले नहीं। “हम लोकतंत्र बचाएँगे!” के नारों के साथ वे डटे रहे।
21 मार्च 1977 को आखिरकार आपातकाल समाप्त हुआ। देश ने जैसे राहत की सांस ली। लोकसभा चुनावों में इंदिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी को भारी पराजय का सामना करना पड़ा, और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी। लोकतंत्र की पुनः स्थापना हुई, और उन कठिन समयों के बाद देश ने फिर से सामान्य जीवन की ओर बढ़ना शुरू किया।
लेकिन आपातकाल का वो भयंकर दौर लोगों के दिलों में हमेशा के लिए एक डरावनी याद बनकर रह गया। वह समय, जब देश ने अपने इतिहास में सबसे काले दिनों का सामना किया। आज 25 जून है यानी उस काले इतिहास को 50 वर्ष पूरे हो गए। भले ही कितना समय भी बीत जाए लेकिन सरकार द्वारा दिए गए उन घावों के निशान सदा लोगों को याद दिलाते रहेंगे की लोकतंत्र और स्वतंत्रता कितने कीमती होते हैं।