गरीबी एक दुष्चक्र है और इस चक्र से बाहर निकलना अगर असंभव नहीं तो असंभव के आसपास तो होता ही है। इस चक्र की याद दिलाता है एक साइकिल का पहिया…पहिया, ‘विटोरियो डी सिका’ द्वारा बनाई गई इटैलियन फिल्म ‘बाइसिकल थीव्स’ का, ये फिल्म एक गरीब परिवार की है, जिसमें घर का मुखिया काम करने के लिए पाई- पाई जोड़कर एक साइकिल खरीदता है, लेकिन काम के पहले दिन ही वो चोरी हो जाती है। इस फिल्म ने दुनिया के अनगिनत डायरेक्टर्स को प्रभावित किया जिसमें भारत के सत्यजीत रे से लेकर अनुराग कश्यप तक का नाम जुड़ा हुआ है। इस लिस्ट में एक और नाम याद आता है जिन्होंने उस फिल्म की भावनाओं और संवेदनाओं को भारत के परिदृश्य में बखूबी इस्तेमाल किया। डायरेक्टर का नाम है बिमल रॉय और फिल्म का नाम है ‘दो बीघा ज़मीन’।
1953 की इस फ़िल्म की कहानी एक ऐसे गांव से शुरू होती है, जहां किसान लंबे समय से सूखे के बाद बारिश का जश्न मना रहे हैं। जब वे “हरियाला सावन ढोल बजाता आया” गाते हैं, तो यह कल्पना करना मुश्किल होता है कि यह आखिरी बार होगा जब हम नायक शंभू और उसके परिवार को खुशी मनाते हुए देखेंगे, क्योंकि इसके बाद, उन पर त्रासदियों की बौछार होती है।
बिमल रॉय का नाम भारतीय सिनेमा के इतिहास में उस व्यक्तित्व के रूप में लिया जाता है, जिसने सादगी, संवेदनशीलता और यथार्थवाद को पर्दे पर लाने की कला में महारथ हासिल की। उनकी फिल्मों में न केवल मनोरंजन था, बल्कि समाज के गहरे सवालों को उठाने और उन्हें संवेदनशील तरीके से प्रस्तुत करने का जुनून भी था।
बिमल रॉय का जन्म 12 जुलाई 1909 को बंगाल के एक छोटे से गांव सुजापुर में हुआ था। उनका जीवन बचपन से ही संघर्षों से भरा रहा। पिता का जल्दी निधन हो गया, और परिवार की आर्थिक स्थिति खराब हो गई। इन कठिनाइयों के बावजूद, उन्होंने जीवन के यथार्थ को समझा और कला की ओर रुख किया।
उनके फिल्मी करियर की शुरुआत कलकत्ता में हुई, जहां उन्होंने न्यू थिएटर्स स्टूडियो में कैमरामैन के रूप में काम किया। इस दौरान उन्होंने प्रख्यात फिल्म निर्देशक पी.सी. बरुआ के साथ काम किया और फिल्म निर्माण की गहरी बारीकियां सीखीं।
1940 के दशक में बिमल रॉय ने बंबई का रुख किया। यहाँ आकर उन्होंने निर्देशन के क्षेत्र में कदम रखा। उनकी पहली स्वतंत्र निर्देशित फिल्म थी ‘उदयेर पथे’ (1944), जो बंगाली में थी। यह फिल्म इतनी सफल रही कि इसका हिंदी रीमेक ‘हमराही’ बनाया गया। इस फिल्म में वर्ग संघर्ष और सामाजिक विषमता जैसे मुद्दों को प्रमुखता से उठाया गया।
बिमल रॉय का करियर 1950 के दशक में अपने चरम पर पहुंचा। इस दशक में उन्होंने एक के बाद एक ऐसी फिल्में दीं, जो सिनेमा की परिभाषा को बदलने वाली साबित हुईं। उनकी कुछ कालजयी फ़िल्मों को आज भी सिनेमा पढ़ने वाले छात्रों को पढ़ाया जाता है। जैसे –
‘दो बीघा ज़मीन’ (1953) – यह फिल्म भारतीय सिनेमा के लिए मील का पत्थर थी। सलिल चौधरी के संगीत और बलराज साहनी के बेहतरीन अभिनय के साथ यह फिल्म ग्रामीण भारत की त्रासदी को बखूबी दर्शाती है। फिल्म ने कान फिल्म फेस्टिवल में अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीता और बिमल रॉय को वैश्विक पहचान दिलाई।
‘परिणीता’ (1953) – शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास पर आधारित यह फिल्म न केवल एक खूबसूरत प्रेम कहानी थी, बल्कि सामाजिक परंपराओं और रिश्तों की जटिलताओं को भी उजागर करती थी।
‘देवदास’ (1955) – यह फिल्म बिमल रॉय की मास्टरपीस मानी जाती है। दिलीप कुमार, वैजयंतीमाला और सुचित्रा सेन के अभिनय ने इस फिल्म को अमर बना दिया। शरतचंद्र के उपन्यास को इस तरह प्रस्तुत करना कि हर वर्ग के दर्शक उससे जुड़ सकें, यह बिमल रॉय के निर्देशन का कमाल था।
‘मधुमती’ (1958) – भारतीय सिनेमा में पुनर्जन्म की अवधारणा को मुख्यधारा में लाने वाली इस फिल्म ने हिंदी फिल्मों के लिए एक नया ट्रेंड स्थापित किया। इसके साथ ही, फिल्म का संगीत, जिसमें “सुहाना सफर और ये मौसम हसीन” जैसे गीत शामिल थे, सदाबहार बन गया।
बिमल रॉय की फिल्मों में सामाजिक यथार्थवाद और मानवीय संवेदनाएं गहराई से दिखती थीं। वे अपनी फिल्मों के माध्यम से समाज के शोषित और उपेक्षित वर्ग की कहानियों को मुख्यधारा में लाने का प्रयास करते थे। उनकी फिल्मों में संवाद से अधिक मौन की ताकत थी। उनकी फिल्मों का हर फ्रेम एक कविता जैसा लगता था।
बिमल रॉय को अपने जीवनकाल में कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। ‘दो बीघा ज़मीन’ और ‘मधुमती’ जैसी फिल्मों ने उन्हें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और फिल्मफेयर पुरस्कार दिलाए। उनका सिनेमा न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी सराहा गया।
बिमल रॉय का निधन आज की तारीख यानी 8 जनवरी 1966 को हुआ। वे केवल 56 वर्ष के थे, लेकिन इस जीवनकाल में उन्होंने जो काम किया, वह भारतीय सिनेमा के लिए अनमोल विरासत है। उनकी कला, उनकी दृष्टि और उनका योगदान आज भी नए फिल्म निर्माताओं को प्रेरित करता है।
उनकी फिल्में यह सिखाती हैं कि मनोरंजन के साथ-साथ सिनेमा समाज के सुधार और जागरूकता का माध्यम भी हो सकता है। उन्हें भारतीय सिनेमा का ‘मौन क्रांतिकारी’ कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, उनकी व्यक्तित्व मे सादगी और मौन की अद्भुत शक्ति थी।
उनकी फिल्में आज भी प्रासंगिक हैं और यह साबित करती हैं कि सच्ची कला समय के बंधनों से परे होती है। बिमल रॉय भारतीय सिनेमा के उन स्तंभों में से एक हैं, जिनके बिना हमारा सिनेमा अधूरा है।