वीरप्पन…एक ऐसा नाम, जिसे सुनते ही लोगों के जेहन में लंबी-घनी मूंछों वाले हाथ में रायफल लिए एक डाकू की तस्वीर घूमने लगती है। दक्षिण भारत में आज भी एक ऐसा नाम है, जिसे सुनकर लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते थे। वह एक ऐसा डाकू था जिसने चार दशकों तक पूरे कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल के जंगलों में आतंक मचा रखा था। उसने न केवल वन विभाग और पुलिस के कई अधिकारियों की हत्या की, बल्कि हजारों टन कीमती चंदन की तस्करी और सैकड़ों हाथियों को मारकर उनकी हाथी दांत बेचने का गुनाह भी किया।
वीरप्पन का जन्म 1952 में कर्नाटक के एक छोटे से गाँव में हुआ। बचपन से ही वह जंगलों में शिकार और अवैध शिकार की तरफ खींचा चला गया। उसकी चालाकी, साहस और क्रूरता ने उसे जंगलों का बादशाह बना दिया। वीरप्पन अपने गैंग के साथ जंगलों में चंदन और हाथी दांत की तस्करी करता और उसका नेटवर्क इतना मजबूत था कि सरकारें उसे पकड़ने में नाकाम होती रहीं। वह न केवल पुलिस और वन विभाग को चकमा देता, बल्कि उनसे मुकाबला करने में भी घबराता नहीं था।
एक वक्त ऐसा आया जब उसके सिर पर 5 करोड़ रुपये का इनाम रखा गया। उसने लगभग 184 लोगों की हत्या की थी, जिनमें से कई पुलिस और वन अधिकारियों के थे। लेकिन जो घटना सबसे ज्यादा भयावह मानी जाती है, वह थी पूर्व पुलिस अधिकारी एसपी गोपालकृष्णन का अपहरण और उनकी बर्बर हत्या। वीरप्पन ने उनके शव को विस्फोटकों से उड़ा दिया, ताकि लोगों के दिलों में और ज्यादा खौफ फैले। वीरप्पन कितना बड़ा दरिंदा बनता चला गया, इसका अंदाजा एक और घटना से लगाया जा सकता है। चंदन तस्कर को भारतीय वन सेवा के अफसर पी श्रीनिवास ने एक बार गिरफ्तार किया था। इसलिए उसने अपने भाई अरजुनन के जरिए पी श्रीनिवास का भरोसा जीता कि वह सरेंडर करना चाहता है। पी श्रीनिवास अपने साथियों का आत्मसमर्पण कराने के लिए रवाना हुए तो जंगल में एक-एक कर उनके साथी गायब होते गए। वह अकेले बचे तो अचानक वीरप्पन रायफल लेकर सामने आ गया।वह कुछ समझ पाते तब तक श्रीनिवास पर उसने ताबड़तोड़ फायरिंग कर दी। उनका सिर काट लिया और अपने साथियों के साथ उससे फुटबॉल खेला।
1990 के दशक में वीरप्पन के आतंक को खत्म करने के लिए कई अभियान चलाए गए, लेकिन सभी नाकाम रहे। उसकी समझदारी और जंगलों का गहरा ज्ञान उसे हर बार पुलिस और सेना से बचने में मदद करता था।
लेकिन 2004 में, तमिलनाडु स्पेशल टास्क फोर्स ने एक अंतिम ऑपरेशन शुरू करने का फैसला किया… ‘ऑपरेशन कोकून’। इस बार योजना और रणनीति बेहद गोपनीय थी। वीरप्पन को मारने के लिए एक सटीक योजना बनाई गई, जिसमें तमिलनाडु STF और कर्नाटक STF ने एक साथ काम किया।
वीरप्पन को पकड़ने का एक ही तरीका था…उसे जंगल से बाहर निकालना और वैसा ही हुआ। STF ने वीरप्पन को झांसे में फंसाने की योजना बनाई। वीरप्पन को यह विश्वास दिलाया गया कि उसे इलाज के लिए एक एंबुलेंस में ले जाया जा रहा है। उसे भरोसा दिलाया गया कि इस बार वह सुरक्षित रहेगा और उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होगी।
18 अक्टूबर 2004 की रात, वीरप्पन अपनी सुरक्षा की पूरी उम्मीद के साथ उस एंबुलेंस में बैठा। उसे बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं था कि उसकी मौत अब कुछ ही कदम दूर है। STF ने एंबुलेंस के रास्ते पर पहले से ही घेराबंदी कर रखी थी। जैसे ही एंबुलेंस एक तय स्थान पर पहुंची, STF ने चारों तरफ से उस पर हमला किया। गोलियों की बौछार ने वीरप्पन को एक मौका भी नहीं दिया।
वीरप्पन उसी रात मारा गया। उसकी मौत के साथ दक्षिण भारत के जंगलों में फैला उसका आतंक खत्म हुआ। वीरप्पन की कहानी केवल एक डाकू की नहीं, बल्कि एक ऐसे शख्स की है जिसने अपने लालच और क्रूरता से पूरे समाज को हिला कर रख दिया।
वीरप्पन की मौत के बाद, उसके बारे में कई कहानियां और अफवाहें सामने आईं। कुछ लोग उसे एक रॉबिनहुड के रूप में भी देखते थे, जो गरीबों की मदद करता था, लेकिन सच्चाई यह थी कि वीरप्पन एक निर्दयी अपराधी था जिसने कई निर्दोष लोगों की जान ली। उसकी मौत के साथ ही उसके द्वारा फैलाए गए आतंक का अंत हुआ।