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Reading: आज की तारीख – 22: इंतकाल के बाद ‘फ़ैज़’ बन गए एक अमर क्रांतिकारी शायर!
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Fourth Special

आज की तारीख – 22: इंतकाल के बाद ‘फ़ैज़’ बन गए एक अमर क्रांतिकारी शायर!

फ़ैज़ की शायरी में रुमानियत और क्रांति का अद्भुत मेल है। उनके शब्द न केवल दिल को छूते हैं, बल्कि सोचने पर भी मजबूर करते हैं।

Last updated: नवम्बर 20, 2024 2:22 अपराह्न
By Rajneesh 6 महीना पहले
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6 Min Read
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“हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिस का वादा है
जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ
रूई की तरह उड़ जाएँगे…”

इस नज्म को फैज अहमद फैज ने 1979 में लिखा था। हालांकि कि इस नज्म के पीछे की कहानी 2 साल पहले साल 1977 से शुरू होती है। भारत में इमरजेंसी का खत्म हुई थी, लोग इंदिरा गांधी से बेहद नाराज थे। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में लोकतंत्र की एक बार फिर से वापसी हुई थी। वहीं पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में आर्मी नें लोकतंत्र खत्म करके अपनी हुकूमत स्थापित की थी। इस घटने के बाद फैज अहमद फैज बेहद दुखी हुए थे, कुछ लोगों का कहना है कि इस घटना के विरोध में ही उन्होंने ‘हम देखें’ नज्म लिखी थी। यह नज्म इस दौर में जिया उल हक की तानाशाही के खिलाफ विद्रोह का परचम बनी थी। अपने विद्रोही शब्दों के कारण इस नज्म पर बैन लगा दिया गया था, मगर बैन के कारण नज्म और चर्चा में आ गई।

जिया उल हक ने पाकिस्तान मे एक फ़रमान के तहत औरतों के साड़ी पहनने पर पाबंदी लगा दी थी, फैज़ साहब से जनरल ज़िया नाराज़गी जगजाहिर थी। लेकिन उनकी नज़्में- ग़ज़लें पाकिस्तान के रेडियो, टीवी पर प्रसारित नहीं होती थीं, ऐसे में पाकिस्तान की मशहूर गायिका इक़बाल बानो ने विरोध दर्ज कराते हुए लाहौर के लाहौर के अलहमरा ऑडिटोरियम में काले रंग की साड़ी पहन कर फ़ैज़ साहब की ये नज़्म गाई और पूरे आवाम ने इसे गुनगुनाना शुरू कर दिया था।

फैज का इंतकाल आज ही के दिन हो गया था लेकिन मृत्यु के बाद फैज और भी ज्यादा पढ़े गए। वो आज भी हुकूमत के खिलाफ बगावत और प्रतिरोध का प्रतीक माने जाते हैं।

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, उर्दू शायरी की दुनिया के वो सितारे हैं, जिनकी चमक न केवल भारतीय उपमहाद्वीप में बल्कि पूरी दुनिया में फैली हुई है। एक क्रांतिकारी शायर, मानवतावादी, और कला के सच्चे पुजारी के रूप में फ़ैज़ ने अपने शब्दों के माध्यम से समाज के हाशिये पर खड़े इंसानों को आवाज़ दी। उनकी शायरी प्रेम, विरोध, संघर्ष और उम्मीद का अनोखा संगम है।

फ़ैज़ का जन्म 13 फरवरी 1911 को सियालकोट (जो अब पाकिस्तान में है) में हुआ। सियालकोट वही शहर है जहाँ अल्लामा इक़बाल जैसे महान कवि का जन्म भी हुआ। फ़ैज़ की शिक्षा-दीक्षा लाहौर में हुई, जहाँ उन्होंने अंग्रेज़ी और अरबी साहित्य में मास्टर्स किया।

भारत से उनका गहरा जुड़ाव हमेशा से रहा। उनकी शायरी में भारतीय संस्कृति, परंपरा और संघर्ष का गहरा प्रभाव दिखता है। 1947 के बँटवारे ने उन्हें भारत से अलग ज़रूर कर दिया, लेकिन उनके दिल और कलम पर भारत हमेशा बसा रहा। उनकी मशहूर नज़्म “सुब्ह-ए-आज़ादी” बँटवारे के दर्द और नई आज़ादी के विरोधाभासों की कहानी कहती है।

“ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर
वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिस की आरज़ू ले कर
चले थे यार…”

फ़ैज़ की शायरी केवल प्रेम और ख़ूबसूरती तक सीमित नहीं थी। उन्होंने समाज में व्याप्त अन्याय, उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद की। उनकी कविताएँ वामपंथी विचारधारा से प्रेरित थीं। वो मानते थे कि साहित्यकार का कर्तव्य केवल सौंदर्य रचना नहीं, बल्कि समाज के अन्याय को उजागर करना और बदलाव के लिए प्रेरित करना भी है।

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को उनकी साहित्यिक और सामाजिक सेवाओं के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। जिसमें लेनिन शांति पुरस्कार (1962) और मरणोपरांत ‘हिलाल-ए-इम्तियाज़’ दिया गया, जो पाकिस्तान का दूसरा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान है।

फ़ैज़ की शायरी में रुमानियत और क्रांति का अद्भुत मेल है। उनके शब्द न केवल दिल को छूते हैं, बल्कि सोचने पर भी मजबूर करते हैं। उनकी भाषा सरल, लेकिन भावनाओं से भरी हुई है। फ़ैज़ इंसानी आज़ादी और अभिव्यक्ति के अधिकार का परचम लहराते हैं।

फ़ैज़ का साहित्य आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उनके समय में था। उनकी कविताएँ हमें यह याद दिलाती हैं कि जब तक दुनिया में असमानता, अन्याय और शोषण है, तब तक उनकी आवाज़ गूँजती रहेगी। भारत में भी, जहाँ साम्प्रदायिकता और सामाजिक विभाजन की खाई बढ़ती जा रही है, फ़ैज़ की शायरी हमें इंसानियत और एकता का सबक सिखाती है।

फ़ैज़ की शायरी केवल पढ़ने के लिए नहीं, बल्कि महसूस करने के लिए है। वह हमारे समय के और आने वाले समय के कवि हैं। उनका कहा हुआ हर शब्द हमें यह विश्वास दिलाता है कि दुनिया बदल सकती है—अगर हम अपनी आवाज़ बुलंद करें।

“मताए लौह-ओ-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है,
कि ख़ून-ए-दिल में डुबो ली हैं उंगलियाँ मैंने।
“

यह पंक्तियाँ बताती हैं कि फ़ैज़ हमेशा अमर रहेंगे, न केवल अपनी शायरी में, बल्कि हर उस दिल में जो न्याय और इंसानियत के लिए धड़कता है।

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TAGGED: Democracy, dictatorship, Emergency, faiz ahmad faiz, hum dekhenge, immortal revolutionary poet, Indira Gandhi, iqbal bano, military rule, pakistan, resistance, thefourth, thefourthindia, zia ul haq
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