बात 1830 के दशक की है, अमेरिका में फ्लोरेंस नाम की एक अफ्रीकी महिला को अपने पति और दो बच्चों से अलग कर दिया गया। उसे एक बड़े बागान में बेच दिया गया, जहां उसे दिन-रात कपास की खेती करनी पड़ती थी। एक बार उसने विरोध किया, तो उसे कोड़े से इतना मारा गया कि उसकी पीठ हमेशा के लिए क्षतिग्रस्त हो गई। उसकी छोटी बेटी, जो महज़ 5 साल की थी, उसे भी बेच दिया गया। यह दृश्य उसकी आँखों के सामने हुआ, और वह अपने बच्चे को कभी नहीं देख पाई। उसी दौरान थोड़ी ही दूर लुई नाम का एक युवा दास, जो भागने की कोशिश कर रहा था, पकड़ा गया और उसे सजा के रूप में अपनी ही माँ की पीटाई देखने पर मजबूर किया गया। उसकी माँ की मौत उसी सजा के दौरान हुई, लेकिन लुइस को फिर भी उसके मालिक ने दंडित करना जारी रखा… तब दासों को अक्सर नीलामी के दौरान “ब्लॉक” पर खड़ा कर दिया जाता था। वहां खरीदार उनकी मांसपेशियों को छूकर यह परखते थे कि वे कितने “मजबूत” हैं। महिलाओं के साथ इस प्रक्रिया में दुर्व्यवहार होना आम बात थी। एक महिला, सारा, जो गर्भवती थी, को इसी तरह नीलामी में खरीदा गया, लेकिन उसकी गर्भावस्था के चलते मालिक ने उसे मार डाला, क्योंकि वह “काम के लायक” नहीं मानी गई। ये मात्र कहानियां नहीं हैं, बल्कि एक मानवीयता को हासिये पर रखकर कैसे किसी की आत्मा को कुचला जाता है उसकी एक झलक है।
दास प्रथा मानव इतिहास के सबसे अंधेरे अध्यायों में से एक रही है। 17वीं शताब्दी में अमेरिका में अफ्रीकी दासों को लाया गया, जिन्हें फसलें उगाने, घरों में काम करने और निर्माण के लिए अमानवीय परिस्थितियों में काम करने के लिए मजबूर किया गया। ये दास अक्सर यातनाएं सहते, अपने परिवारों से अलग किए जाते और बिना किसी अधिकार के जीवन जीते थे।
अमेरिका में, 19वीं सदी में इस प्रथा का अंत एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। 18 दिसंबर, 1865 को, अमेरिकी संविधान के 13वें संशोधन के तहत दासता को आधिकारिक रूप से समाप्त कर दिया गया। इस संशोधन ने संविधान में यह सुनिश्चित किया कि कोई भी व्यक्ति, नस्ल, रंग या पूर्व गुलामी के आधार पर, गुलाम नहीं रहेगा। यह दिन अमेरिकी इतिहास में मानवाधिकारों और समानता के आंदोलन की जीत के रूप में दर्ज है।
हालांकि इसकी कहानी भी जानने योग्य है। 1861 से 1865 तक चले अमेरिकी गृह युद्ध का मुख्य कारण दासता ही थी। उत्तरी अमेरिका और दक्षिणी अमेरिका के बीच इस युद्ध में, उत्तरी राज्यों ने दासता का विरोध किया, जबकि दक्षिणी राज्य इसे बनाए रखना चाहते थे। युद्ध के दौरान, 1863 में राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने ‘Emancipation Proclamation’ जारी किया, जिसने दासता के अंत की नींव रखी।
हालांकि, यह आदेश केवल विद्रोही राज्यों में लागू हुआ और इसे कानूनी मान्यता तब मिली, जब 13वें संशोधन को संविधान में जोड़ा गया। 6 दिसंबर, 1865 को इसे राज्यों ने मंजूरी दी, और 18 दिसंबर को इसे आधिकारिक रूप से लागू किया गया।
भारत का अमेरिका में गुलामी समाप्त करने की प्रक्रिया से सीधा संबंध नहीं है, लेकिन ऐतिहासिक दृष्टि से दोनों देशों में गुलामी और असमानता के विरुद्ध संघर्ष में समानताएँ हैं। अमेरिका में गुलामी के अंत के बाद भी, ब्रिटिश साम्राज्य ने भारतीय slaves को ‘Indentured Labour’ के नाम पर देशों जैसे कि कैरिबियन, फिजी, और दक्षिण अफ्रीका भेजा। यह भी गुलामी का एक बदला हुआ रूप था।
18 दिसंबर, 1865 को अमेरिका में गुलामी के अंत का दिन सिर्फ अमेरिका के लिए नहीं, बल्कि पूरे विश्व के लिए मानवाधिकारों की दिशा में एक प्रेरणादायक घटना है। भारत के लिए यह घटना एक महत्वपूर्ण संदर्भ है, क्योंकि दोनों देशों ने असमानता और अन्याय के खिलाफ समान संघर्ष किया। आज यह दिन हमें याद दिलाता है कि स्वतंत्रता, समानता और न्याय केवल आदर्श नहीं हैं, बल्कि इन्हें हर समाज में व्यवहार में लाना अनिवार्य है। हालांकि, भले ही कागज़ों मे slavery को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया है लेकिन मैं नहीं मानता कि धरातल में ये अभी जिवित है भले ही इसका रूप बदल गया हो लेकिन ये पूरी तरह शायद ही खत्म होगी, चाहे मनुष्य कितना भी आगे बढ़ जाए।