विज्ञान की दुनिया में ऐसे कई मोड़ हैं जिन्होंने मानव सभ्यता को हमेशा के लिए बदल दिया। क्लोनिंग ऐसी ही एक तकनीक है जिसने वैज्ञानिकों, दार्शनिकों और आम लोगों के मन में जिज्ञासा और बहस दोनों को जन्म दिया।
क्लोनिंग की शुरुआत 1950 के दशक में हुई जब वैज्ञानिकों ने पहली बार मेंढक के अंडाणुओं में अनुवांशिक सामग्री का स्थानांतरण किया। लेकिन असली सफलता 1996 में मिली जब स्कॉटलैंड के वैज्ञानिकों ने पहली बार एक स्तनधारी जानवर का सफलतापूर्वक क्लोन बनाया। इस भेड़ का नाम ‘डॉली’ रखा गया, जो विज्ञान की दुनिया में एक क्रांति की तरह आई। ‘डॉली’ को क्लोन करने के लिए ‘सोमैटिक सेल न्यूक्लियर ट्रांसफर’ नामक तकनीक का उपयोग किया गया।
‘डॉली’ की सफलता ने इंसानों को क्लोन करने की संभावना पर चर्चा को जन्म दिया। 2000 के दशक की शुरुआत में, इस पर प्रयोगों ने गति पकड़ी। हालाँकि, मानव क्लोनिंग हमेशा विवादों के घेरे में रही। इसे नैतिकता, धार्मिक मान्यताओं और सामाजिक प्रभावों के कारण कई देशों में प्रतिबंधित कर दिया गया।
2002 में, एक फ्रांसीसी वैज्ञानिक ब्रिगिट बोइस्लियर ने घोषणा की कि उनकी कंपनी ‘क्लोनएड’ ने पहली मानव क्लोन, ‘ईव,’ को सफलतापूर्वक जन्म दिया है। इस खबर ने पूरी दुनिया में सनसनी मचा दी।
ब्रिगिट बोइस्लियर ‘राएलियन मूवमेंट’ से जुड़ी थीं, जो यह मानता है कि जीवन का निर्माण एक एलियन सभ्यता ने किया है। उनकी घोषणा के अनुसार, ‘ईव’ एक स्वस्थ बच्ची थी, जिसका डीएनए उसकी माँ के समान था। हालाँकि, यह दावा विवादों में घिरा रहा क्योंकि ‘ईव’ का कोई सार्वजनिक प्रमाण आज इतने साल भी नहीं दिया गया।
मानव क्लोन के आइडिया के पीछे की कहानी भी बेहद दिलचस्प है। इटली के सेवेरिनो एंटीनोरी ने 1980 के दशक में सबजोनल इन्सेमिनेशन (सूजी) तकनीक का आविष्कार करके नि:संतानों को एक आशा की किरण दिखाई थी। उन्होंने ही साल 1994 में माय इंपॉसिबिल चिल्ड्रेन नामक किताब लिखकर मानव की क्लोनिंग होने की संभावना जताई थी। जनवरी, 2001 में उन्होंने पानाइओटिस जावोस के साथ यह घोषणा की थी कि वैज्ञानिकों की उनकी टीम ही जनवरी या फरवरी, 2003 में दुनिया का पहला मानव क्लोन पैदा करेगा या अस्तित्व में ला सकेगा। उसी समय क्लोनेड कंपनी ने भी दावा किया था कि उनकी कंपनी ने एक अमेरिकी दंपति की मृत बच्ची का क्लोन बनाने का अनुबंध किया है। वही दुनिया के पहले मानव क्लोन को सबके सामने लाएगी। ईव के जन्म की घोषणा करके क्लोनेड ने अपने वादे को ही पूरा किया था।
हालांकि, स्कॉटलैंड के रोसलिन इंस्टीट्यूट के ईयन विलमट भी क्लोनेड के दावे को ठीक नहीं मानते। विलमट ने ही डॉली क्लोन बनाकर एक नया कीर्तिमान बनाया था। विलमट के मुताबिक लोगों ने सुअर के क्लोन बनाने का दावा किया है, पर क्या उन्हें किसी ने देखा है? बंदरों के क्लोन के भी दावे हुए, पर क्या उन्हें किसी ने देखा? विलमट ने क्लोनेड के दावे को नकारते और सफलता पर संदेह के साथ कहा था कि अगर ऐसा है तो क्लोनेड को सबूत देने चाहिए, जो नहीं है।
हैदराबाद में भारत के सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मोलिक्यूलर बायोलोजी के निदेशक भी क्लोनिंग को सही नहीं मानते। उनके अनुसार इसका सबसे बड़ा बुरा असर यह हो सकता है कि लोग एक ही व्यक्ति के कई क्लोन बना सकते हैं।
आज क्लोनिंग का इस्तेमाल मुख्यतः चिकित्सा अनुसंधान और अंग प्रत्यारोपण के लिए किया जा रहा है। ‘थेरैप्यूटिक क्लोनिंग’ के माध्यम से वैज्ञानिक विभिन्न बीमारियों के इलाज के लिए अंग और ऊतक बनाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन मानव क्लोनिंग अब भी कई देशों में अवैध है।
क्लोनिंग की यह यात्रा विज्ञान और नैतिकता के बीच के संघर्ष की कहानी है। ‘ईव’ चाहे हकीकत हो या अफवाह, उसने मानव क्लोनिंग की संभावनाओं और खतरों पर गहन चर्चा को प्रेरित किया।
क्लोनिंग का भविष्य रोमांचक और चुनौतीपूर्ण दोनों है। यदि तकनीक और नैतिकता के बीच संतुलन बनाया जा सके, तो यह मानवता के लिए वरदान साबित हो सकती है। परन्तु यदि इसे अनियंत्रित तरीके से अपनाया गया, तो इसके परिणाम भयंकर हो सकते हैं।
विज्ञान की दुनिया में ऐसे कई मोड़ हैं जिन्होंने मानव सभ्यता को हमेशा के लिए बदल दिया। क्लोनिंग ऐसी ही एक तकनीक है जिसने वैज्ञानिकों, दार्शनिकों और आम लोगों के मन में जिज्ञासा और बहस दोनों को जन्म दिया।
क्लोनिंग की शुरुआत 1950 के दशक में हुई जब वैज्ञानिकों ने पहली बार मेंढक के अंडाणुओं में अनुवांशिक सामग्री का स्थानांतरण किया। लेकिन असली सफलता 1996 में मिली जब स्कॉटलैंड के वैज्ञानिकों ने पहली बार एक स्तनधारी जानवर का सफलतापूर्वक क्लोन बनाया। इस भेड़ का नाम ‘डॉली’ रखा गया, जो विज्ञान की दुनिया में एक क्रांति की तरह आई। ‘डॉली’ को क्लोन करने के लिए ‘सोमैटिक सेल न्यूक्लियर ट्रांसफर’ नामक तकनीक का उपयोग किया गया।
डॉली’ की सफलता ने इंसानों को क्लोन करने की संभावना पर चर्चा को जन्म दिया। 2000 के दशक की शुरुआत में, इस पर प्रयोगों ने गति पकड़ी। हालाँकि, मानव क्लोनिंग हमेशा विवादों के घेरे में रही। इसे नैतिकता, धार्मिक मान्यताओं और सामाजिक प्रभावों के कारण कई देशों में प्रतिबंधित कर दिया गया।
2002 में, एक फ्रांसीसी वैज्ञानिक ब्रिगिट बोइस्लियर ने घोषणा की कि उनकी कंपनी ‘क्लोनएड’ ने पहली मानव क्लोन, ‘ईव,’ को सफलतापूर्वक जन्म दिया है। इस खबर ने पूरी दुनिया में सनसनी मचा दी।
ब्रिगिट बोइस्लियर ‘राएलियन मूवमेंट’ से जुड़ी थीं, जो यह मानता है कि जीवन का निर्माण एक एलियन सभ्यता ने किया है। उनकी घोषणा के अनुसार, ‘ईव’ एक स्वस्थ बच्ची थी, जिसका डीएनए उसकी माँ के समान था। हालाँकि, यह दावा विवादों में घिरा रहा क्योंकि ‘ईव’ का कोई सार्वजनिक प्रमाण आज इतने साल भी नहीं दिया गया।
मानव क्लोन के आइडिया के पीछे की कहानी भी बेहद दिलचस्प है। इटली के सेवेरिनो एंटीनोरी ने 1980 के दशक में सबजोनल इन्सेमिनेशन (सूजी) तकनीक का आविष्कार करके नि:संतानों को एक आशा की किरण दिखाई थी। उन्होंने ही साल 1994 में माय इंपॉसिबिल चिल्ड्रेन नामक किताब लिखकर मानव की क्लोनिंग होने की संभावना जताई थी। जनवरी, 2001 में उन्होंने पानाइओटिस जावोस के साथ यह घोषणा की थी कि वैज्ञानिकों की उनकी टीम ही जनवरी या फरवरी, 2003 में दुनिया का पहला मानव क्लोन पैदा करेगा या अस्तित्व में ला सकेगा। उसी समय क्लोनेड कंपनी ने भी दावा किया था कि उनकी कंपनी ने एक अमेरिकी दंपति की मृत बच्ची का क्लोन बनाने का अनुबंध किया है। वही दुनिया के पहले मानव क्लोन को सबके सामने लाएगी। ईव के जन्म की घोषणा करके क्लोनेड ने अपने वादे को ही पूरा किया था।
हालांकि, स्कॉटलैंड के रोसलिन इंस्टीट्यूट के ईयन विलमट भी क्लोनेड के दावे को ठीक नहीं मानते। विलमट ने ही डॉली क्लोन बनाकर एक नया कीर्तिमान बनाया था। विलमट के मुताबिक लोगों ने सुअर के क्लोन बनाने का दावा किया है, पर क्या उन्हें किसी ने देखा है? बंदरों के क्लोन के भी दावे हुए, पर क्या उन्हें किसी ने देखा? विलमट ने क्लोनेड के दावे को नकारते और सफलता पर संदेह के साथ कहा था कि अगर ऐसा है तो क्लोनेड को सबूत देने चाहिए, जो नहीं है।
हैदराबाद में भारत के सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मोलिक्यूलर बायोलोजी के निदेशक भी क्लोनिंग को सही नहीं मानते। उनके अनुसार इसका सबसे बड़ा बुरा असर यह हो सकता है कि लोग एक ही व्यक्ति के कई क्लोन बना सकते हैं।
आज क्लोनिंग का इस्तेमाल मुख्यतः चिकित्सा अनुसंधान और अंग प्रत्यारोपण के लिए किया जा रहा है। ‘थेरैप्यूटिक क्लोनिंग’ के माध्यम से वैज्ञानिक विभिन्न बीमारियों के इलाज के लिए अंग और ऊतक बनाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन मानव क्लोनिंग अब भी कई देशों में अवैध है।
क्लोनिंग की यह यात्रा विज्ञान और नैतिकता के बीच के संघर्ष की कहानी है। ‘ईव’ चाहे हकीकत हो या अफवाह, उसने मानव क्लोनिंग की संभावनाओं और खतरों पर गहन चर्चा को प्रेरित किया।
क्लोनिंग का भविष्य रोमांचक और चुनौतीपूर्ण दोनों है। यदि तकनीक और नैतिकता के बीच संतुलन बनाया जा सके, तो यह मानवता के लिए वरदान साबित हो सकती है। परन्तु यदि इसे अनियंत्रित तरीके से अपनाया गया, तो इसके परिणाम भयंकर हो सकते हैं।
विज्ञान की दुनिया में ऐसे कई मोड़ हैं जिन्होंने मानव सभ्यता को हमेशा के लिए बदल दिया। क्लोनिंग ऐसी ही एक तकनीक है जिसने वैज्ञानिकों, दार्शनिकों और आम लोगों के मन में जिज्ञासा और बहस दोनों को जन्म दिया।
क्लोनिंग की शुरुआत 1950 के दशक में हुई जब वैज्ञानिकों ने पहली बार मेंढक के अंडाणुओं में अनुवांशिक सामग्री का स्थानांतरण किया। लेकिन असली सफलता 1996 में मिली जब स्कॉटलैंड के वैज्ञानिकों ने पहली बार एक स्तनधारी जानवर का सफलतापूर्वक क्लोन बनाया। इस भेड़ का नाम ‘डॉली’ रखा गया, जो विज्ञान की दुनिया में एक क्रांति की तरह आई। ‘डॉली’ को क्लोन करने के लिए ‘सोमैटिक सेल न्यूक्लियर ट्रांसफर’ नामक तकनीक का उपयोग किया गया।
डॉली’ की सफलता ने इंसानों को क्लोन करने की संभावना पर चर्चा को जन्म दिया। 2000 के दशक की शुरुआत में, इस पर प्रयोगों ने गति पकड़ी। हालाँकि, मानव क्लोनिंग हमेशा विवादों के घेरे में रही। इसे नैतिकता, धार्मिक मान्यताओं और सामाजिक प्रभावों के कारण कई देशों में प्रतिबंधित कर दिया गया।
2002 में, एक फ्रांसीसी वैज्ञानिक ब्रिगिट बोइस्लियर ने घोषणा की कि उनकी कंपनी ‘क्लोनएड’ ने पहली मानव क्लोन, ‘ईव,’ को सफलतापूर्वक जन्म दिया है। इस खबर ने पूरी दुनिया में सनसनी मचा दी।
ब्रिगिट बोइस्लियर ‘राएलियन मूवमेंट’ से जुड़ी थीं, जो यह मानता है कि जीवन का निर्माण एक एलियन सभ्यता ने किया है। उनकी घोषणा के अनुसार, ‘ईव’ एक स्वस्थ बच्ची थी, जिसका डीएनए उसकी माँ के समान था। हालाँकि, यह दावा विवादों में घिरा रहा क्योंकि ‘ईव’ का कोई सार्वजनिक प्रमाण आज इतने साल भी नहीं दिया गया।
मानव क्लोन के आइडिया के पीछे की कहानी भी बेहद दिलचस्प है। इटली के सेवेरिनो एंटीनोरी ने 1980 के दशक में सबजोनल इन्सेमिनेशन (सूजी) तकनीक का आविष्कार करके नि:संतानों को एक आशा की किरण दिखाई थी। उन्होंने ही साल 1994 में माय इंपॉसिबिल चिल्ड्रेन नामक किताब लिखकर मानव की क्लोनिंग होने की संभावना जताई थी। जनवरी, 2001 में उन्होंने पानाइओटिस जावोस के साथ यह घोषणा की थी कि वैज्ञानिकों की उनकी टीम ही जनवरी या फरवरी, 2003 में दुनिया का पहला मानव क्लोन पैदा करेगा या अस्तित्व में ला सकेगा। उसी समय क्लोनेड कंपनी ने भी दावा किया था कि उनकी कंपनी ने एक अमेरिकी दंपति की मृत बच्ची का क्लोन बनाने का अनुबंध किया है। वही दुनिया के पहले मानव क्लोन को सबके सामने लाएगी। ईव के जन्म की घोषणा करके क्लोनेड ने अपने वादे को ही पूरा किया था।
हालांकि, स्कॉटलैंड के रोसलिन इंस्टीट्यूट के ईयन विलमट भी क्लोनेड के दावे को ठीक नहीं मानते। विलमट ने ही डॉली क्लोन बनाकर एक नया कीर्तिमान बनाया था। विलमट के मुताबिक लोगों ने सुअर के क्लोन बनाने का दावा किया है, पर क्या उन्हें किसी ने देखा है? बंदरों के क्लोन के भी दावे हुए, पर क्या उन्हें किसी ने देखा? विलमट ने क्लोनेड के दावे को नकारते और सफलता पर संदेह के साथ कहा था कि अगर ऐसा है तो क्लोनेड को सबूत देने चाहिए, जो नहीं है।
हैदराबाद में भारत के सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मोलिक्यूलर बायोलोजी के निदेशक भी क्लोनिंग को सही नहीं मानते। उनके अनुसार इसका सबसे बड़ा बुरा असर यह हो सकता है कि लोग एक ही व्यक्ति के कई क्लोन बना सकते हैं।
आज क्लोनिंग का इस्तेमाल मुख्यतः चिकित्सा अनुसंधान और अंग प्रत्यारोपण के लिए किया जा रहा है। ‘थेरैप्यूटिक क्लोनिंग’ के माध्यम से वैज्ञानिक विभिन्न बीमारियों के इलाज के लिए अंग और ऊतक बनाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन मानव क्लोनिंग अब भी कई देशों में अवैध है।
क्लोनिंग की यह यात्रा विज्ञान और नैतिकता के बीच के संघर्ष की कहानी है। ‘ईव’ चाहे हकीकत हो या अफवाह, उसने मानव क्लोनिंग की संभावनाओं और खतरों पर गहन चर्चा को प्रेरित किया।
क्लोनिंग का भविष्य रोमांचक और चुनौतीपूर्ण दोनों है। यदि तकनीक और नैतिकता के बीच संतुलन बनाया जा सके, तो यह मानवता के लिए वरदान साबित हो सकती है। परन्तु यदि इसे अनियंत्रित तरीके से अपनाया गया, तो इसके परिणाम भयंकर हो सकते हैं।