देश की आज़ादी के अमृत महोत्सव को अब एक साल पूरा होने को आया है, पर इस आज़ाद भारत देश में मनोरंजन आज तक आज़ाद नही हो पाया। मनोरंजन का सबसे बड़ा साधन- फिल्म्स। आए दिन कभी फिल्मों पर बैन, कभी बॉयकॉट तो कभी सेंसर हो जाने का डर आपको सारे कलाकारों में मिल जाएगा। और कोई भी अच्छा कलाकार चैन की सांस लेते हुए अपना काम आराम से ना कर सके, इसकी पूरी जमीदारी हमारे देश के एक विभाग ने ले रखी है, जिसका नाम है “सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन”. जी हां, सही समझा आपने। सर्टिफिकेशन का अर्थ होता है किसी भी फिल्म को उसके कंटेंट के हिसाब से एक रेटिंग देना जिससे ये निर्धारित होता है कि ये फिल्म समाज का कौन सा हिस्सा देख सकता है। इसमें मूलतः चार वर्ग होते हैं।
1) ‘U’ :- Unrestricted Public Exhibition ( हर किसी के लिए)
2) ‘U/A :- Below 12 years of age under Parental Guidance ( 12 वर्ष से कम की आयु को अभिभावक की सलाह अनिवार्य)
3) ‘A’ :- Restricted to Adults (18 वर्ष या उससे अधिक आयु वाले लोगों के लिए)
4) ‘S’ :- Special Class ( खास वर्ग जैसे डॉक्टरों, वैज्ञानिकों के लिए)
इस विभाग की नीव देश की आज़ादी से भी पुरानी है। 1920 में इंडियन सिनेमेटोग्राफ ऐक्ट के तहत अलग अलग जगहों के लिए अलग अलग सर्टिफिकेशन बोर्ड स्थापित किए गए थे। आज़ादी के बाद 1952 इन सभी बोर्ड्स को “बॉम्बे बोर्ड ऑफ फिल्म सेंसर्स” के अंतर्गत एक ही कर दिया गया।
तब से लेकर अब तक नाम सर्टिफिकेशन बोर्ड है, मगर ये विभाग काम बिलकुल सेंसर बोर्ड की तरह कर रहा है। आए दिन ऐसी फिल्में जो सिर्फ एक फॉर्मूला फिल्म नही होती, एक फैमिली एंटरटेनर मसाला फिल्म नही होती, वे अपने सीन्स को लेकर किसी न किसी नियम के अंतर्गत विवादों में फस जाती है और उसमे काट छांट के सुझाव दिए जाते हैं, जिन्हे माने बिना फिल्में आगे नहीं बढ़ पाती जिसमे निर्माता और निर्देशक का बहुत नुकसान होता है। कभी किसी धर्म या जाति का नाम ले लेने पर, कभी विषय के किसी एक समुदाय के पक्ष में या विपक्ष में होने पर, कभी लिंग के आधार पर तो कभी तो किसी रंग की वजह से भी फिल्में सेंसर में अटक जाया करती हैं, क्योंकि सी बी एफ सी को यह डर सताता रहता है कहीं लोग इसका बुरा न माने और आक्रोश न जताएं। ये भारत है साहब। बुरा मानने में हमारी राष्ट्रीय रूचि रही है।
किसी विशेष सरकार या पार्टी का नाम लेने पर भी आपत्ति है। उड़ता पंजाब के बारे में तो आप जानते ही होंगे। फिल्म में सी बी एफ सी द्वारा 89 कट्स लगाए गए थे, जिसको लेकर बहुत बवाल भी हुआ था। इतना ही नहीं, फिल्मों के नाम पर भी सेंसर ने अपनी कैंची बड़ी ही बारीकी से चलाई है। पद्मावती को पद्मावत, बिल्लू बार्बर को बिल्लू और मेंटल को जय हो बनते सबने देखा है। अभी सी बी एफ सी के सबसे ताजा मिसाल के तौर पर फिल्म “ओ माय गॉड 2” अपने 24 कट्स के साथ रिलीज होने वाली है।
इन सारी बातों को बताने का कारण एक सवाल से जुड़ा हुआ है। सवाल है कि क्या आज के टेक्नोलॉजी से लैस इस ज़माने में जहां इंटरनेट पर सब कुछ खुल्लम खुल्ला मौजूद है, वहां सेंसरशिप की बात कहां तक जायज़ है। क्या वाकई इसकी मंशा लोगों के मन में आक्रोश को पनपने से रोकना है, या फिर अधिकारी इसका सिर्फ अपनी मनमानी करने के लिए उपयोग कर रहे हैं।