बलूचिस्तान…यह नाम सुनते ही दिमाग़ में बंजर पहाड़, रेत, और खामोश चीखें उभरती हैं। पाकिस्तान का यह सबसे बड़ा लेकिन सबसे उपेक्षित प्रांत, जहां प्राकृतिक संसाधनों की भरमार है, पर इंसानी हकों की भारी किल्लत। यहां दशकों से दमन का सिलसिला जारी है। जबरन गुमशुदगियां, मानवाधिकारों का उल्लंघन, सेना का बर्बर रवैया और विकास के नाम पर लूट। पर इन सबके बीच सबसे ज्यादा चोट अगर किसी तबके ने सही है, तो वह है…बलूच महिलाएं।
ये बलूच महिलाओं की व्यथा से बनने वाली आग की कहानी है। एक पितृसत्तात्मक समाज से लड़ाई और दूसरी, पाकिस्तानी सत्ता की बर्बरता से मुठभेड़। और यह न सिर्फ उनके दमन की कहानी है, बल्कि उनके विद्रोह की गाथा भी है। एक ऐसी कहानी जिसे इतिहास ने अक्सर नज़रअंदाज़ किया, लेकिन जिसे मिटाया नहीं जा सकता।
बलूच समाज परंपरागत रूप से पितृसत्तात्मक रहा है। यहां की महिलाएं दशकों से सामाजिक, शैक्षिक, और राजनीतिक हाशिए पर रखी गईं। ज़्यादातर मामलों में उन्हें स्कूल जाने की इजाज़त नहीं, राजनीतिक अधिकारों की बात तो दूर। घरेलू हिंसा, बाल विवाह और पर्दा-प्रथा जैसी रूढ़ियाँ उनके जीवन का हिस्सा हैं।
पर यह सिर्फ एक पक्ष है। बलूच महिलाओं की दूसरी तस्वीर कहीं ज़्यादा प्रेरणादायक है। महरंग बलोच, करिमा बलोच और जलिला हैदर जैसी महिलाओं ने न सिर्फ अपने अधिकारों के लिए, बल्कि पूरे बलूच समुदाय की आज़ादी के लिए आवाज़ उठाई।
करिमा बलोच बलूच विद्रोह का वो नाम है जिसे मिटाने की कोशिश की गई, लेकिन वो और उभरकर सामने आई। बलोच स्टूडेंट्स ऑर्गनाइज़ेशन की पहली महिला अध्यक्ष बनने के बाद, उन्होंने पाकिस्तान सरकार और सेना की क्रूरता के ख़िलाफ़ खुलकर आवाज़ उठाई।
उनकी अंतर्राष्ट्रीय सक्रियता उन्हें खतरे में ले आई। उन्हें जान से मारने की धमकियाँ मिलीं, आख़िरकार उन्होंने कनाडा में शरण ली। लेकिन 2020 में, उनकी लाश टोरंटो की झील में मिली। अधिकारियों ने कहा “दुर्घटना थी”, लेकिन बलोच जनता ने कहा यह एक राजनीतिक हत्या थी। करिमा मर गई, पर करिमा की आवाज़ अमर हो गई।
महरंग बलोच, एक युवा एक्टिविस्ट, डॉक्टर और लेखक, जिन्होंने बलूचिस्तान में जबरन गुमशुदगियों के ख़िलाफ़ सबसे मुखर विरोध किया। महरंग के चाचा को जबरन उठा लिया गया था, और उसी दिन महरंग की ज़िंदगी बदल गई।
उन्होंने विरोध मार्च का नेतृत्व किया, इंटरनेशनल मीडिया में इंटरव्यू दिए और बलूच मांओं के आँसुओं को शब्द दिए। 2023 में जब वह इस्लामाबाद तक मार्च करके पहुंची, तो पाकिस्तान की सत्ता की दीवारें हिल उठीं। महरंग की सबसे बड़ी ताकत यह रही कि उन्होंने विरोध को महिला चेहरा दिया। एक ऐसा चेहरा जिसे दबाया गया, पर जो अब डरता नहीं।
हजारा समुदाय से ताल्लुक रखने वाली वकील जलिला हैदर ने न सिर्फ महिला अधिकारों के लिए, बल्कि बलूच और हजारा समुदाय के लिए ज़मीन पर लड़ाई लड़ी।
उनकी भूख हड़तालें, गिरफ्तारी और साहस ने उन्हें “आयरन लेडी ऑफ बलूचिस्तान” बना दिया। जलिला आज सिर्फ एक वकील नहीं हैं। वो एक आंदोलन हैं।
बलूचिस्तान में हजारों महिलाएं ऐसी हैं जिन्होंने अपने बेटों को गुमशुदा पाया। इन मांओं ने तस्वीरें उठाईं और सड़कों पर निकलीं। क्वेटा से इस्लामाबाद तक निकले मार्च में महिलाएं आगे थीं। पुलिस ने उन्हें धकेला, अपमानित किया, पर वो रुकी नहीं। एक माँ जब सड़क पर बैठकर रोती है, तो वो आँसू नहीं बहा रही होती। वो इतिहास बदल रही होती है।
बलूचिस्तान की महिलाओं का विद्रोह सिर्फ एक इंसानी हक़ की लड़ाई नहीं है, यह अस्तित्व की लड़ाई है। एक ऐसी जगह जहाँ सालों से संसाधनों की लूट, जबरन गायबियां और जातीय शोषण होता रहा है, वहाँ महिलाओं ने खुद को सिर्फ पीड़िता नहीं रहने दिया। उन्होंने खुद को प्रतिरोध बना लिया।
बलूच महिलाओं ने यह दिखाया कि आज़ादी की लड़ाई में औरतें सिर्फ साथ नहीं चलतीं, वो आगे चलती हैं। उन्होंने यह साबित किया कि हथियार ज़रूरी नहीं, हिम्मत ज़रूरी है।
बलूच महिलाओं की कहानी कोई वीरगाथा नहीं, यह एक चीख है…जो सदियों से दबाई जा रही थी। उन्होंने अपने आँसुओं को इंक़लाब बनाया, अपने डर को मशाल। यह सिर्फ बलूचिस्तान की लड़ाई नहीं…यह हर उस समाज की लड़ाई है जो औरत को कमज़ोर समझता है, और हर उस हुकूमत के खिलाफ जो आवाज़ से डरती है।
बलूच औरतें अब केवल माताएं, बहनें, बेटियां नहीं…वे क्रांति हैं।क्योंकि जब औरतें विद्रोह करती हैं तो रेत में भी फूल उग सकते हैं।