यह एक दर्दनाक हकीकत है, जिसे दुनिया ने या तो नज़रअंदाज़ कर दिया या जानबूझकर चुप्पी साध ली। बलूचिस्तान की त्रासदी सिर्फ़ एक क्षेत्रीय संघर्ष नहीं, बल्कि एक सभ्यता का धीमे-धीमे खत्म होता अस्तित्व है। बलूचों के साथ हुए अन्याय की कहानी आज़ादी के वादों से शुरू होती है और यातनाओं, नरसंहार, गुमशुदगियों, और दमन के अनगिनत अध्यायों तक फैली हुई है।
जब 1947 में भारत और पाकिस्तान का बंटवारा हुआ, तब बलूचिस्तान का भविष्य भी अधर में था। ब्रिटिश राज के दौरान, बलूचिस्तान मुख्य रूप से तीन हिस्सों में बंटा था। ब्रिटिश बलूचिस्तान, कलात और कुछ अन्य छोटे क्षेत्र। 11 अगस्त 1947 को, बलूचिस्तान ने खुद को एक स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया, लेकिन पाकिस्तान ने इसे मान्यता नहीं दी। महज़ आठ महीने बाद, 27 मार्च 1948 को, पाकिस्तानी सेना ने बलूचिस्तान पर जबरन कब्ज़ा कर लिया। यह वही दिन था, जब बलूचों की आज़ादी उनसे छीन ली गई और एक काले अध्याय की शुरुआत हुई।
बलूचिस्तान के खान ऑफ़ कलात, अहमद यार खान ने पाकिस्तान के साथ विलय से इनकार कर दिया था। उन्होंने भारत और ब्रिटिश सरकार से अपील की, लेकिन जब मदद नहीं मिली, तो पाकिस्तानी सेना ने कलात पर हमला कर दिया और बलूचिस्तान को पाकिस्तान में जबरन मिला लिया। बलूचों ने इसका विरोध किया, लेकिन उन्हें कुचल दिया गया।
1958 में, जब बलूचों ने अपने हक के लिए आवाज़ उठाई, तो पाकिस्तान के तानाशाह अय्यूब खान ने सैन्य कार्रवाई शुरू कर दी। प्रमुख बलूच नेता, नोबेल खान, और उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया। इस दौर में पाकिस्तानी सेना ने हजारों बलूच नागरिकों को मारा और विद्रोह को बेरहमी से दबा दिया।
जब ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने बलूचिस्तान में सेना भेजी। 55,000 से अधिक पाकिस्तानी सैनिकों ने बलूचों के खिलाफ़ युद्ध छेड़ दिया, जिसमें 5,000 से अधिक बलूच मारे गए और हजारों बेघर हो गए।
नवाब अकबर बुगती, जो बलूचों के सबसे बड़े नेता थे, उन्होंने बलूचिस्तान की आज़ादी और अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई। लेकिन 26 अगस्त 2006 को, पाकिस्तान के तानाशाह परवेज़ मुशर्रफ ने उन्हें बंकर में मिसाइल से उड़ा दिया। बुगती की हत्या ने बलूचिस्तान में आज़ादी की मांग को और तेज कर दिया।
पाकिस्तानी सेना और ख़ुफ़िया एजेंसियों (ISI) ने बलूच लोगों का अपहरण करना शुरू कर दिया। बलूचिस्तान से हर साल सैकड़ों लोग गायब हो जाते हैं, जिनमें नेता, पत्रकार, छात्र और आम नागरिक शामिल हैं। बाद में उनकी लाशें मिलती हैं, जिनपर यातनाओं के निशान होते हैं।
2014 में, बलूचिस्तान के खुज़दार जिले में 100 से अधिक लाशों वाली सामूहिक कब्रें (Mass Graves) मिलीं। ये वो लोग थे, जिन्हें पाकिस्तानी सेना ने उठाया और मार डाला। ये कब्रें बताती हैं कि पाकिस्तान ने बलूचों का किस हद तक नरसंहार किया।
बलूचिस्तान, पाकिस्तान का सबसे समृद्ध क्षेत्र है, जहां गैस, कोयला, तांबा और सोना प्रचुर मात्रा में है। लेकिन बलूच खुद गरीबी में जी रहे हैं, क्योंकि उनके संसाधनों को पाकिस्तान लूट रहा है। ग्वादर बंदरगाह को चीन को बेच दिया गया, लेकिन बलूचों को इसका कोई फायदा नहीं मिला।
बलूचिस्तान में महिलाओं पर भी अत्याचार किए गए। पाकिस्तानी सेना बलूच महिलाओं को अगवा करके उन्हें प्रताड़ित करती है। कई महिलाओं को आतंकवादी बताकर मार दिया गया।
बलूचिस्तान से सच्चाई बाहर न जाए, इसलिए वहां मीडिया पर प्रतिबंध है। बलूच पत्रकारों को मारा जाता है, धमकाया जाता है, और उनके परिवारों को टारगेट किया जाता है।
28 मई 1998 को पाकिस्तान ने बलूचिस्तान के चगई क्षेत्र में परमाणु परीक्षण किए। इस परीक्षण के कारण वहां रेडिएशन फैल गया और हजारों बलूच बीमार पड़ गए। लेकिन पाकिस्तान ने इस पर कभी ध्यान नहीं दिया।
बलूच राष्ट्रवादी संगठन लगातार आज़ादी की मांग कर रहे हैं। बलूच लिबरेशन आर्मी (BLA), बलूच रिपब्लिकन आर्मी (BRA), और बलूच नेशनल मूवमेंट (BNM) जैसे संगठन पाकिस्तान से लड़ रहे हैं। लेकिन पाकिस्तान इन्हें आतंकवादी बताकर इनका सफाया करने में जुटा है।
सबसे बड़ी विडंबना यह है कि दुनिया बलूचिस्तान की त्रासदी पर चुप है। संयुक्त राष्ट्र से लेकर अमेरिका तक, किसी ने इस अन्याय के खिलाफ़ खुलकर आवाज़ नहीं उठाई। लेकिन बलूचों का संघर्ष जारी है। वे आज भी अपनी खोई हुई आज़ादी को पाने के लिए लड़ रहे हैं।
बलूचिस्तान की कहानी एक ऐसी करुण गाथा है, जिसे हर इंसान को जानना चाहिए। क्योंकि जब एक पूरा समुदाय अन्याय का शिकार होता है, और दुनिया चुप रहती है, तो यह सिर्फ़ बलूचों की हार नहीं, इंसानियत की हार है।