भारत में लोग एक ऐसी संस्कृति में पले-बढ़े हैं जहां उन्हें लगातार अपने बड़ों की बात सुनने, उनका सम्मान करने और उनकी बात मानने के लिए कहा जाता है, चाहे फिर कुछ भी हो जाये। हालांकि इसमे कोई दो राय नहीं कि बड़ों का अनुभव हमारी उम्र से भी दुगना होता है, लेकिन यह जरूरी नहीं है कि ज्ञान और समझदारी का संबंध बड़ी उम्र से ही जुड़ा हुआ हो।
मिसाल के तौर पर कुछ पूर्व भारतीय क्रिकेटर्स के उदाहरण ले लीजिए। गावस्कर, गंभीर, मांजरेकर जैसे कई अन्य नामों की एक लंबी लिस्ट बनाई जा सकती है…जब कमेंट्री बॉक्स में बैठे क्रिकेटर्स ने खेल और खिलाड़ियों के रणनीतियों पर टिप्पणी या आलोचना करने के अलावा ज्ञान के ऐसे द्वार खोल दिए जिनमे कोई कम उम्र का व्यक्ती ना ही दस्तक दे तो बेहतर होगा।
फ़िलहाल जितना बुरा हाल इंडियन क्रिकेट टीम का मैदान पर है उतना ही बुरा हाल मैदान के बाहर पूर्व खिलाड़ियों से भरे कमेंट्री बॉक्स का भी है।
भारतीय क्रिकेट में पूर्व खिलाड़ियों का कमेंट्री बॉक्स में प्रवेश कोई नई बात नहीं है। इसे खेल के मैदान पर अपने अनुभव और ज्ञान को साझा करने के लिए यह एक स्वाभाविक प्रोग्रेरेसिव प्रोसेस मानी जाती है। हालांकि, हाल के वर्षों में कुछ पूर्व क्रिकेटरों द्वारा की गई विवादास्पद टिप्पणियों ने दर्शकों और प्रशंसकों के बीच असंतोष पैदा किया है। इन बयानों ने न केवल उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाए हैं, बल्कि क्रिकेट कमेंट्री की गुणवत्ता पर भी प्रश्नचिह्न लगाया है।
बेबाकी के नाम पर ऊल – जलूल बोलने पहला नाम जो दिमाग में आता है वह पूर्व क्रिकेटर युवराज सिंह के पिता खुद क्रिकेटर रहे योगराज सिंह का हैं। हालांकि वह कमेंटेटर तो नहीं हैं लेकिन शायद खुद वे उनसे कम भी नहीं समझते हैं। कपिल देव, धोनी और विराट जैसे कई खिलाड़ी पर वे सालों से हमला करते आ रहे हैं।
हाल ही में योगराज सिंह ने पैरेंटिंग, महिलाओं और हिंदी भाषा पर जो टिप्पणीयां की हैं वो किसी भी सभ्य समाज को शोभा नहीं देती है। ‘Unfiltered by Samdish’ के एक इंटरव्यू में योगराज सिंह ने पूर्व भारतीय कप्तान कपिल देव के सिर में गोली मारने वाले किस्से का जिक्र किया उन्होंने कहा कि ,’मैं ऐसा नहीं कर सका क्योंकि उनकी मां वहां खड़ी थीं और उन्हें देखकर मैं रुक गया।’
इंटरव्यू के दौरान योगराज सिंह ने सत्ता में बैठी महिलाओं के बारे में भी अपमानजनक टिप्पणी की थी, उन्होंने कहा था कि अगर महिलाओं को अधिकार दिया जाए तो वे घरों को बर्बाद कर सकती हैं। योगराज के अनुसार अगर पत्नी को अधिकार दिया जाए तो वह घर बर्बाद कर सकती है, ठीक वैसे ही जैसे इंदिरा गांधी ने देश का किया था।
महिलाओं पर अपमानित टिप्पणी के अलावा उन्होंने हिंदी भाषा का अपमान भी किया। योगराज ने हिन्दी भाषा को महिलाओं की भाषा और पंजाबी को मर्दों की भाषा कहा था। वैसे तो ये उनके व्यक्तिगत विचार है और इस देश में अभिव्यक्ति की आजादी भी है लेकिन समझना जरूरी है कि वे कोई आम व्यक्ती नहीं ब्लकि एक पब्लिक फिगर हैं जिसकी बातों का असर गलत पड़ सकता है।
उनका यह बयान एक सांस्कृतिक और भाषाई दृष्टिकोण से भी आलोचना का विषय है। क्योंकि भाषाओं का चुनाव किसी व्यक्ति की पहचान, संस्कृति और समाज से जुड़ा होता है। यह जरूरी है कि हम किसी भी भाषा या संस्कृति का सम्मान करें।
उनके अलावा हाल ही में सुनील गावस्कर ने भी रोहित शर्मा पर टिप्पणी की तो वह विवादों में आ गए रोहित अपने बच्चे के जन्म की वजह से BGT का पहला टेस्ट नहीं खेल पाए थे। वैसे ये कोई पहला मौका नहीं था कि गावस्कर ने क्रिकेट से अलग किसी पर व्यक्तिगत आलोचना करने का विकल्प चुना हो। कोविड के बाद उन्होंने कहा था कि, ”लॉकडाउन में कोहली ने तो बस अनुष्का की बॉलिंग की प्रैक्टिस की होगी”
इसी तरह भारतीय टीम के पूर्व बल्लेबाज और वर्तमान कमेंटेटर संजय मांजरेकर भी अपने विवादित बयानों के लिए जाने जाते हैं। महिला टी20 वर्ल्ड कप 2024 के दौरान भारत और न्यूजीलैंड के बीच हुए मैच में उन्होंने कहा कि वह उत्तर भारत के महिला खिलाड़ियों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं रखते। इस टिप्पणी के बाद सोशल मीडिया पर उनकी आलोचना हुई और कुछ प्रशंसकों ने उन्हें कमेंट्री से हटाने की मांग की थी।
संजय मांजरेकर ने एक पहले भी पूर्व भारतीय ओपनर गौतम गंभीर के बारे में कहा कि, ‘उनके पास न तो शब्द हैं और न ही तमीज, इसलिए उन्हें प्रेस कॉन्फ्रेंस से दूर रखना चाहिए।’ यह बयान तब आया जब गंभीर ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान ऑस्ट्रेलिया के पूर्व कप्तान रिकी पोंटिंग के बारे में विवादित टिप्पणी की थी।
वैसे ये आदत तो खुद गौतम गंभीर में भी देखी गई है। उन्हें अक्सर धोनी और कोहली की आलोचना करते देखा है। स्किल, कप्तानी, रणनीतियों या प्रदर्शनों के बजाय वे बहुत बार दोनों के व्यक्तित्व पर भी हमला करते रहें हैं।
वीरेंद्र सहवाग जैसे पूर्व खिलाड़ी अक्सर क्रिकेट विश्लेषण शो में अन्य पैनलिस्टों की आवाज़ों को दबाने की कोशिश करते हैं और दर्शकों को ख़ास जानकारी देने के बजाय अपने विचारों को प्रमुखता देते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि अन्य देशों के पूर्व क्रिकेटर खेल के बारे में अधिक गहराई और स्पष्टता से बात करते हैं, जबकि भारतीय विश्लेषकों की टिप्पणियाँ अक्सर सतह – सतह की होती हैं।
हरभजन सिंह, रॉबिन उथप्पा, मोहम्मद कैफ, इरफान पठान जैसे कई नाम इस समय कमेंट्री बॉक्स में नजर आ रहे हैं। जिस तरह से वो अपने ही पुराने साथियों की आलोचना के नाम पर पर्सनल कॉमेंट करते वो देख कर बुरा लगता है। हालांकि हर्षा भोगले, आकाश चोपड़ा और सुरेश रैना जैसे कुछ अपवाद भी हैं, जो अपने शब्दों के वज़न और अपनी जिम्मेदारी को तव्वजो देते हुये कमेंट्री करते हैं।
विदेश में भी कमेंट्री बॉक्स का हाल कुछ बहुत अच्छा नहीं है। कुछ समय पहले ऑस्ट्रेलिया में एक महिला कमेंटेटर ईशा गुहा द्वारा जसप्रीत बुमराह के लिए ‘प्राइमेट’ शब्द का इस्तेमाल किया गया, जिसे नस्लीय टिप्पणी माना जाता है।
बोलने के बिजनेस में कमेंटेटरों की जिम्मेदारी होती है कि वे अपने शब्दों का चयन सावधानीपूर्वक करें, क्योंकि उनके बयानों का व्यापक प्रभाव होता है। विवादास्पद या असंवेदनशील टिप्पणियां न केवल दर्शकों की भावनाओं को आहत करती हैं, बल्कि खेल की भावना को भी ठेस पहुंचाती हैं।
पूर्व क्रिकेटरों को कमेंट्री के दौरान अपने अनुभव और ज्ञान को साझा करते समय संयम और संवेदनशीलता बरतनी चाहिए। उन्हें यह समझना होगा कि उनके शब्दों का प्रभाव व्यापक होता है, और किसी भी विवादास्पद बयान से बचना चाहिए जो खेल और समाज दोनों के लिए हानिकारक हो सकता है।
यकीनन क्रिकेट भारत में एक धर्म की तरह है कमेंट्री बॉक्स में बैठे इन पूर्व खिलाड़ियों ने भी देश के लिए बहुत योगदान दिया है। जिसका इल्म सभी दर्शकों को है। लेकिन कुछ पूर्व क्रिकेटर इसके खुद एक्सपर्ट गए हैं। हम समझते हैं कि क्रिकेट की चकाचौंध और ग्लैमर ने उन्हें हर वक्त सुर्खियों में बने रहने की आदत डाल दी है। लेकिन यह आवश्यक है कि वे अपने बयानों में सावधानी बरतें और खेल की भावना को बनाए रखें क्यूंकि उनके ऐसे बयानों से हमारा दिल दुखता है साथ ही ये उन उभरते युवा खिलाड़ियों के लिए भी सही नहीं है जो इन महान खिलाड़ियों को अपनी प्रेरणा के रूप में देखते हैं।
Note : इस लेख के कुछ अंश लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं। उन्हें तथ्य मानकर अन्यथा न लिया जाये।