भारत में महिलाएँ हर दिन 201 मिनट (3 घंटे 21 मिनट) पुरुषों से अधिक घरेलू कामों में लगाती हैं। कपड़े धोना, खाना बनाना, बच्चों की देखभाल करना और घर की साफ-सफाई जैसे काम उनके दैनिक जीवन का हिस्सा बन चुके हैं। लेकिन ये सभी काम बिना किसी आर्थिक मान्यता के होते हैं, यानी इसके लिए उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता। वहीं, पुरुष केवल 30 से 40 मिनट ही घरेलू कार्यों में लगाते हैं।
क्या महिलाओं की मेहनत का कोई मोल नहीं?
अगर इन कामों का आर्थिक मूल्य निकाला जाए, तो यह करोड़ों रुपये के बराबर होगा। लेकिन समाज इसे ‘कर्तव्य’ समझता है, न कि ‘काम’। यही वजह है कि महिलाएँ दिनभर घर के कामों में लगी रहती हैं, लेकिन उनकी मेहनत को ‘काम’ नहीं माना जाता। अगर यही काम किसी हाउसकीपर या मेड से कराया जाए, तो उन्हें सैलरी दी जाती है।
कहने को घर का काम, लेकिन सेहत पर है भारी
लगातार घर के कामों में व्यस्त रहने से महिलाओं के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर असर पड़ता है। कई महिलाएँ थकान, तनाव और समय की कमी की वजह से खुद का ध्यान नहीं रख पातीं। बच्चों और परिवार की देखभाल के बीच वे अपनी सेहत, नींद और आराम से समझौता कर लेती हैं।
क्या यह सिर्फ महिलाओं की है ज़िम्मेदारी?
समाज में यह धारणा बनी हुई है कि घर का काम सिर्फ महिलाओं का होता है। परिवार में बेटों को बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि घर के काम माँ-बहन या पत्नी की जिम्मेदारी है। इसी वजह से पुरुष इन कामों में हाथ नहीं बँटाते। हालाकि ऐसा हर घर में नहीं होता है। कुछ घरों में पुरुष भी घर के कामो में हाथ बटाते हैं। लेकिन फिर भी सवाल उठता है—क्या घर में रहने वाले सभी लोग घर के कामों की जिम्मेदारी बराबर से नहीं उठा सकते?
महिलाएँ घर, परिवार और समाज के लिए जो योगदान देती हैं, वह अमूल्य है। लेकिन अगर उन्हें अपने सपने पूरे करने का मौका देना है, तो घरेलू कामों को सिर्फ ‘महिलाओं की ज़िम्मेदारी’ समझने की सोच बदलनी होगी। जब पुरुष भी इन कामों में बराबर की भागीदारी निभाएँगे, तभी समाज में असली समानता आ सकेगी।