भारतीय राजनीति में शशि थरूर एक ऐसा नाम हैं जो Academic Wisdom, global experience and candor के लिए जाने जाते हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और लोकसभा सांसद शशि थरूर पिछले कुछ वर्षों से ना केवल पार्टी की नीतियों को लेकर मुखर रहे हैं, बल्कि कई बार उनकी बातें कांग्रेस नेतृत्व की लाइन से हटकर रही हैं। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनकी मुलाक़ात और हालिया बयानबाजी के बाद एक बार फिर ये अटकलें तेज़ हो गई हैं कि क्या शशि थरूर भाजपा का रुख कर सकते हैं?
हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज 8,900 करोड़ रुपये की लागत से बने विझिनजाम इंटरनेशनल डीपवाटर मल्टीपर्पज सीपोर्ट’ राष्ट्र को समर्पित किया। इस मौके पर पीएम नरेंद्र मोदी ने कहा कि समारोह में इंडी एलायंस के मजबूत स्तंभ सीएम पिनराई विजयन और शशि थरूर की मौजूदगी से कुछ लोगों की दिक्कत होगी। कांग्रेस का नाम लिए बगैर पीएम ने कहा कि आज का यह इवेंट कई लोगों को नींद हराम कर देगा।
कुछ समय पहले पहलगाम हमले को लेकर थरूर ने एक सरकार की तारीफ की थी। जिस पर कांग्रेस नेता उदित राज ने अपने पार्टी सहयोगी यानी थरूर पर निशाना साधा था। पार्टी के प्रति उनकी निष्ठा पर सवाल उठाते हुए राज ने कहा कि उन्हें आश्चर्य है कि क्या थरूर कांग्रेस के लिए बोल रहे हैं या खुद को भाजपा के साथ जोड़ रहे हैं। कांग्रेस नेता ने कहा कि मैं शशि थरूर से पूछना चाहता हूं कि क्या वह कांग्रेस पार्टी में हैं या भाजपा में? क्या वह सुपर-भाजपाई बनने की कोशिश कर रहे हैं?
थरूर और कांग्रेस के बीच बढ़ती दूरी के कई संकेत मिलते रहे हैं। शशि थरूर कई बार सार्वजनिक रूप से कांग्रेस पार्टी की रणनीति और नेतृत्व पर सवाल उठा चुके हैं। उन्होंने G-23 समूह का हिस्सा बनकर कांग्रेस नेतृत्व से आंतरिक सुधारों की मांग की थी। उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव भी लड़ा, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि वे नेतृत्व में बदलाव चाहते हैं। थरूर कई बार केरल प्रदेश कांग्रेस के नेताओं खासकर वी.डी. सतीशन और रमेश चेन्निथला से भी टकराते रहे हैं, जिनसे उनके मतभेद अब किसी से छुपे नहीं हैं।
इस तरह की आंतरिक कलह और उपेक्षा से यह साफ़ झलकता है कि थरूर कांग्रेस में अपने भविष्य को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं। कुछ समय पहले भी उन्होंने कहा था कि, “अगर पार्टी मेरी ताकत का इस्तेमाल करना चाहती है, तो मैं वहां रहूंगा। अगर नहीं, तो मेरे पास दूसरे विकल्प हैं।” उन्होंने कहा, “मैंने नेहरू के पंचायती राज का विरोध किया, मैंने भाजपा के हिंदुत्व और सांप्रदायिक एजेंडे का विरोध किया, मैं वामपंथी विचारधारा का विरोध करता हूं। मैं आपातकाल का विरोध करता हूं, यह गलत था और इसने हमारे राज्य की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को निलंबित कर दिया। मैंने किसी न किसी बिंदु पर सभी की आलोचना की है। मेरी राय है, और कभी-कभी वे मेरी पार्टी को पसंद नहीं आती हैं। मैं लंबे समय से इसका सामना कर रहा हूं; इस पर चर्चा करने का कोई मतलब नहीं है।”
कुछ समय पहले भी शशि थरूर की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से एक व्यक्तिगत मुलाकात हुई। थरूर ने इसे ‘शिष्टाचार मुलाक़ात’ कहा, लेकिन राजनीति में शिष्टाचार के पीछे रणनीति छुपी होती है।
यह मुलाकात ऐसे समय हुई जब लोकसभा चुनाव नज़दीक हैं और भाजपा दक्षिण भारत में अपने पांव और मजबूत करना चाहती है। थरूर ने मुलाकात के बाद पीएम मोदी के लिए सराहना भरे शब्दों का प्रयोग किया जो आमतौर पर विपक्षी नेता नहीं करते।
भाजपा के कई वरिष्ठ नेताओं ने भी उनके बारे में बयान दिए, जैसे “शशि थरूर जैसे विद्वान हमारे साथ हों तो और अच्छा होगा।” यह सब संकेत करता है कि राजनीतिक जमीन तैयार हो रही है।
लेकिन नया सवाल उठता है कि क्या भाजपा में थरूर फिट बैठते हैं? शशि थरूर की छवि एक अंग्रेज़ी भाषी बुद्धिजीवी की है। ये प्रोफाइल भाजपा के पारंपरिक ढांचे से थोड़ा अलग है, लेकिन भाजपा का हालिया रुझान देखें तो भाजपा अब ऐसे चेहरों को भी साथ लाना चाहती है जो उसे शहरी और युवा वर्ग में स्वीकार्यता दिला सकें।
दक्षिण भारत खासतौर पर केरल में भाजपा का जनाधार ना के बराबर है। ऐसे में थरूर जैसे प्रभावशाली नेता के आने से भाजपा को वहां बड़ा फायदा हो सकता है।
भाजपा को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी ऐसे चेहरों की ज़रूरत है जिनकी एक ग्लोबल credibility हो। ऐसे में थरूर, जो संयुक्त राष्ट्र में अंडर सेक्रेटरी जनरल रह चुके हैं, इस भूमिका में फिट बैठते हैं।
अगर मान ले कि थरूर भाजपा में आते हैं तो इसके कई परिणाम हो सकते हैं जैसे – भाजपा को दक्षिण भारत, खासकर केरल में बौद्धिक और युवा वोट बैंक पर पकड़ बनाने में मदद मिलेगी। विदेश नीति और वैश्विक मंचों पर भाजपा को एक अनुभवी प्रवक्ता मिलेगा।
वहीं कांग्रेस को एक और प्रगतिशील और चर्चित चेहरा गंवाना पड़ेगा, क्यूंकि ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के पास अच्छे चेहरे और समझदार लोगों की कमी है। लेकिन ना जाने क्यूँ कॉंग्रेस उन चेहरों और उनकी काबिलियत का सही उपयोग नहीं कर सकती। जैसा पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद और कपिल सिब्बल के साथ हुआ। राहुल गांधी को समझना होगा कि केवल बाहरी तौर पर संविधान और लोकतंत्र की किताब लेकर घूमने से बात नहीं बनेगी जब पार्टी की internal democracy ही सवालों के घेरे में हो।
थरूर को एक नई राजनीतिक पहचान और शायद केंद्र में मंत्री पद का प्रस्ताव मिल सकता है। लेकिन इससे उनकी छवि पर आंच भी आ सकती है, खासकर उन समर्थकों में जो भाजपा से असहमत हैं।
बहरहाल जो होगा उस पर तब बात करेंगे। फ़िलहाल शशि थरूर ने बीजेपी में जाने वाली अफ़वाहों को न तो पूरी तरह खारिज किया है, और न ही पुष्टि की है। उन्होंने केवल इतना कहा है कि वे “राजनीति में खुले संवाद के पक्षधर हैं।”
राजनीतिक विश्लेषकों की माने तो थरूर की ‘ना हां, ना ना’ की स्थिति खुद एक बड़ा संकेत है कि कुछ तो पक रहा है। क्यूंकि राजनीति में जब धुंआ उठता है तो अक्सर कहीं न कहीं आग जरूर होती है। शशि थरूर की हालिया गतिविधियाँ, कांग्रेस से बढ़ती दूरी, भाजपा नेताओं की बयानबाज़ी और प्रधानमंत्री से मुलाक़ात और मोदी का खुले मंच से बयान…ये सब केवल संयोग नहीं हो सकते। यह जरूरी नहीं कि थरूर भाजपा में कल ही शामिल हो जाएं, लेकिन यह संभावना अब केवल कल्पना नहीं रह गई है।