भारत और पाकिस्तान के बीच हालिया तनाव और तुर्की जैसे देशों के पक्षपाती रुख के बाद अंतरराष्ट्रीय कूटनीति एक नई करवट ले रही है। इसी दौरान एक चौंकाने वाली लेकिन रणनीतिक दृष्टि से अहम घटना सामने आई। भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर और अफगानिस्तान में तालिबान सरकार के कार्यवाहक विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी के बीच आधिकारिक स्तर पर पहली बार फोन पर बातचीत हुई।
यह संपर्क सामान्य नहीं है। यह भारत और तालिबान के बीच अगस्त 2021 में तालिबान के सत्ता में आने के बाद पहली राजनीतिक स्तर की वार्ता है। इस वार्ता ने एक नया अध्याय शुरू कर दिया है। एक ऐसा अध्याय जिसमें दुश्मन को दुश्मन मानने के बजाय कूटनीतिक लचीलापन दिखाया गया है। सवाल यह है कि क्या यह केवल रणनीतिक संवाद है या फिर भारत तालिबान को धीरे-धीरे वैधता देने की दिशा में बढ़ रहा है?
भारत का अफगानिस्तान के साथ एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रिश्ता रहा है। 2001 से 2021 तक, जब अफगानिस्तान में लोकतांत्रिक सरकारें थीं, भारत ने वहाँ 3 बिलियन US Dollar से अधिक का निवेश किया। सड़कों, स्कूलों, संसद भवन, बांध और स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में। लेकिन 2021 में तालिबान के सत्ता में आते ही यह सब कुछ अचानक रुक गया।
भारत ने तालिबान सरकार को अब तक आधिकारिक मान्यता नहीं दी है। हालांकि भारत ने “people-to-people ties” और “humanitarian aid” की बात करते हुए कुछ मानवीय सहायता अवश्य भेजी, लेकिन राजनीतिक संवाद लगभग शून्य था।
इस संवाद के समय पर ध्यान देना जरूरी है। एक ओर पाकिस्तान के साथ तनाव बढ़ रहा है, वहीं तुर्की जैसे देश खुलकर पाकिस्तान का समर्थन कर रहे हैं। दूसरी ओर अफगानिस्तान के भीतर भी तालिबान पर पाकिस्तान के अत्यधिक प्रभाव को लेकर असंतोष है। ऐसे में तालिबान अब अपनी विदेश नीति में विविधता लाना चाहता है।
भारत के लिए भी यह एक रणनीतिक अवसर है। इससे पाकिस्तान को तीन तरफ से घेरने की नीति बन सकती है। तालिबान और पाकिस्तान के रिश्ते इन दिनों बहुत अच्छे नहीं हैं। तालिबान टीटीपी (तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान) के खिलाफ वैसी सख्ती नहीं दिखा रहा, जैसी पाकिस्तान चाहता है। इससे पाकिस्तान और तालिबान के संबंधों में तनाव पैदा हुआ है।
चीन भी लगातार अफगानिस्तान में घुसने की कोशिश कर रहा है। चाहे वो खनिज संसाधनों के दोहन के रूप में हो या बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के ज़रिए। भारत इससे चिंतित है और वह चाहता है कि वह भी इस क्षेत्रीय खेल में सक्रिय बना रहे।
भारत में आतंकवादी गतिविधियों के लिए पाकिस्तान समर्थित संगठनों द्वारा अफगानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल होने की संभावना हो सकती थी। ऐसे में भारत चाहेगा कि वह तालिबान के साथ सुरक्षा संबंधी संवाद स्थापित करे।
भले ही तालिबान की विचारधारा भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों से मेल नहीं खाती, लेकिन कूटनीति में केवल विचारधारा नहीं, रणनीति और यथार्थ का भी महत्व होता है।
तालिबान भी भारत के साथ संबंध सुधारने को लेकर इच्छुक दिखाई दे रहा है क्यूंकि, तालिबान बार-बार यह कहता रहा है कि वह अफगानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल किसी अन्य देश के खिलाफ नहीं होने देगा। तालिबान भारत को एक बड़ी आर्थिक शक्ति और संभावित निवेशक के रूप में देखता है। तालिबान को अब तक दुनिया में किसी बड़े देश से मान्यता नहीं मिली है, भारत के साथ संबंध सुधारने से उसे वैश्विक वैधता मिल सकती है।
ऐसे में आने वाले समय में संभव है कि भारत धीरे-धीरे अपनी अधूरी विकास परियोजनाओं को फिर से शुरू करे, खासकर स्वास्थ्य, शिक्षा और आधारभूत ढांचे के क्षेत्र में। इसके ज़रिए भारत “soft power” के ज़रिए अफगान जनता के दिलों में जगह बना सकता है।
भारत चाहेगा कि तालिबान भारत विरोधी आतंकी गुटों को अफगान जमीन से संचालित न होने दे। इसके लिए खुफिया साझेदारी या कम से कम संवाद की एक पंक्ति खुली रखी जा सकती है।
अभी भारत ने तालिबान को मान्यता नहीं दी है। लेकिन भविष्य में यदि अन्य बड़े देश ऐसा करते हैं या तालिबान अपने शासन को नरम बनाता है, तो भारत भी वैधता देने की दिशा में कदम बढ़ा सकता है।
भारत तालिबान के ज़रिए पाकिस्तान पर कूटनीतिक दबाव बना सकता है। यदि तालिबान भारत से नजदीकी बढ़ाता है, तो पाकिस्तान की रणनीतिक गहराई में दरार पड़ सकती है।
तालिबान की विचारधारा के हिसाब से भारत एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश है, जबकि तालिबान की शासन व्यवस्था कट्टरपंथ पर आधारित है। भारत के लिए यह वैचारिक टकराव चिंता का विषय रहेगा।
भारत को तालिबान के साथ संबंध स्थापित करने पर आलोचना झेलनी पड़ सकती है, खासकर पश्चिमी देशों से जो तालिबान को मान्यता नहीं देते। तालिबान के भीतर कई धड़े हैं। कुछ गुट भारत विरोधी संगठनों से सहानुभूति रखते हैं। ऐसे में भरोसा बनाना और बनाए रखना कठिन होगा।
भारत और तालिबान के बीच यह पहला उच्च स्तरीय संपर्क किसी सामयिक रणनीति से अधिक गहरा संकेत हो सकता है…एक बदलती विश्व व्यवस्था में कूटनीति की दिशा में कदम।
भारत को अपने हितों की रक्षा करनी है, और इसके लिए उसे कभी-कभी उन रास्तों पर भी चलना पड़ता है जो पहले असंभव लगते थे। तालिबान से संवाद उसी यथार्थ का हिस्सा है। एक बात तो तय है अफगानिस्तान का भविष्य और भारत की विदेश नीति अब पहले जैसे नहीं रहेंगे।