वह एक बच्चे की तरह बड़ा हुआ,
जिसकी हथेलियों से रेत बह गई,
जिसके घर की दीवारें हवा में घुल गईं,
जिसकी पहचान किसी फ़रमान में खो गई।
एक गाँव था उसका अल-बिरवा,
पेड़ों के नीचे हँसते हुए चेहरे थे,
खेतों में लहलहाती उम्मीदें थीं,
लेकिन इतिहास ने उसे नक़्शे से मिटा दिया।
वह भागा था अपनों के साथ,
लेबनान की पथरीली गलियों में,
एक अजनबी की तरह लौट आया,
लेकिन पाया कि उसका वजूद ही ग़ैरक़ानूनी हो गया।
“मौजूद-अनुपस्थित”
एक अजीब सा नाम दे दिया दुनिया ने,
कि वह था भी, और नहीं भी,
कि उसकी परछाई थी, मगर ज़मीन नहीं।
फिर उसने कलम उठाई,
और वह गाँव फिर जिंदा हुआ,
लफ़्ज़ों में दरख़्त उगे,
सियाही में फ़लस्तीन सांस लेने लगा।
दरवेश, जो एक नाम था,
अब एक आंदोलन बन गया,
जिसके शब्द चिंगारी थे,
जिसकी कविताएँ एक पूरी क़ौम की पहचान थीं।
यह कहानी है उस कवि की,
जिसने निर्वासन को कविता बना दिया,
जिसने जड़ों को काग़ज़ पर खींचा,
और जो मरने के बाद भी जिंदा रहा।
1941 में फ़लस्तीनी गाँव अल-बिरवा में जन्मे महमूद दरवेश का जीवन एक अंतहीन संघर्ष और निर्वासन की कहानी है। वे सिर्फ़ एक कवि नहीं थे, बल्कि फ़लस्तीनी पहचान और उसके दर्द के सबसे सशक्त स्वर थे। उनका जीवन, जिसे वे ख़ुद “जड़ों से उखड़ा हुआ पेड़” कहते थे, उसी पीड़ा की गूंज था जिसने उन्हें महानतम कवियों की श्रेणी में ला खड़ा किया।
दरवेश का जन्म एक मध्यमवर्गीय किसान परिवार में हुआ। उनका गाँव अल-बिरवा, हरे-भरे खेतों और शांत पहाड़ियों से घिरा हुआ था, लेकिन 1948 में इसराइल के गठन के बाद सब कुछ बदल गया। जब वे महज़ सात साल के थे, तब उन्होंने अपनी आँखों के सामने अपने गाँव को उजड़ते देखा। इसराइली सेना के हमलों के कारण उनके परिवार को लेबनान भागना पड़ा। एक साल बाद जब वे चोरी-छिपे अपने वतन लौटे, तो पाया कि उनका गाँव पूरी तरह नष्ट कर दिया गया था। अब वे अपने ही देश में ‘ग़ैरक़ानूनी प्रवासी’ थे—’मौजूद-अनुपस्थित’ (present-absent alien), यह शब्द ही उनके पूरे जीवन का प्रतीक बन गई।
एक शरणार्थी की तरह जीते हुए, महमूद दरवेश ने बहुत कम उम्र में लिखना शुरू कर दिया। स्कूल में पढ़ाई के दौरान ही उनकी कविताएँ इसराइली सरकार को खटकने लगीं। उनकी शुरुआती कविताओं में ही फ़लस्तीनी संघर्ष और बिछड़न की छाप थी। 1960 के दशक में जब वे किशोर थे, तब उनकी पहली कविता संग्रह प्रकाशित हुई और उन्होंने धीरे-धीरे अपनी पहचान एक प्रतिबद्ध कवि के रूप में बनाई।
उनकी सबसे प्रसिद्ध कविताओं में से एक ‘Identity Card’ थी, जिसमें उन्होंने एक फ़लस्तीनी नागरिक के क्रोध और अपमान को बयां किया :-
“लिख लो!
मैं एक अरब हूँ,
मेरे पहचान पत्र पर लिखा है मेरा नाम…
मैं आठ बच्चों का पिता हूँ,
पत्थरों से ढकी झोपड़ी में रहता हूँ…”
यह कविता इसराइली सत्ता के लिए खतरा बन गई और दरवेश को जेल में डाल दिया गया। यह उनके जीवन का पहली कैद थी, लेकिन आखिरी नहीं।
1960 और 1970 के दशक दरवेश के लिए जेल, घर में नज़रबंदी और फिर अंततः निर्वासन के साल थे। इसराइली सरकार ने उनके लिखने पर पाबंदी लगाई और उन्हें देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया। वे रूस, मिस्र, लेबनान, सीरिया, ट्यूनीशिया और पेरिस जैसे कई देशों में भटकते रहे। इस निर्वासन ने उनकी कविताओं को और गहरा बना दिया।
उन्होंने एक बार कहा था, “मेरी आत्मा हमेशा दो दुनिया के बीच फँसी रहती है…एक खोया हुआ अतीत और एक अनिश्चित भविष्य।”
उनकी कविता “बेइरूत की प्रेमिका” उनके निर्वासन के दौरान की व्यथा का सजीव दस्तावेज़ है। 1982 में जब इसराइली सेना ने बेइरूत पर हमला किया, तब दरवेश वहीं थे। उन्होंने अपने शब्दों से इस त्रासदी को जीवित कर दिया।
दरवेश की कविताओं में सिर्फ़ राजनीति और दर्द नहीं था, बल्कि प्रेम भी था। वे प्रेम को भी संघर्ष के रूप में देखते थे। उनकी प्रेम कविताएँ उनके राजनीतिक कवि होने के बावजूद बेहद संवेदनशील और कोमल थीं। उन्होंने अपनी कविताओं में प्रेम को भी निर्वासन और जड़ों की तलाश के प्रतीक के रूप में पेश किया।
उनकी प्रसिद्ध कविताओं में से एक थी “उसके बिना”, जिसमें उन्होंने अपने प्रेम और बेगानगी को एक साथ पिरोया:-
“मैं तुम्हें खोजता हूँ,
हर सड़क पर, हर खिड़की पर,
और जब तुम नहीं मिलती,
तो मुझे लगता है,
क्या मेरा प्रेम भी बेघर हो गया है?”
महमूद दरवेश की कविताएँ फ़लस्तीन की आत्मा बन गईं। वे केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि एक पूरे राष्ट्र की आवाज़ थे। उनकी कविताओं को पढ़कर फ़िलस्तीनी युवाओं ने अपने संघर्ष को पहचाना।
उन्होंने अपने जीवन में 30 से अधिक कविता संग्रह लिखे और अनेकों पुरस्कार जीते, लेकिन उनके लिए सबसे बड़ा सम्मान यह था कि उनकी कविताएँ लाखों लोगों के दिलों में बसी थीं।
2008 में, दिल की गंभीर बीमारी के कारण अमेरिका में उनका ऑपरेशन हुआ, लेकिन वे जीवित नहीं बच सके। 9 अगस्त 2008 को, इस महान कवि का निधन हो गया। उनका पार्थिव शरीर रामल्लाह में दफ़नाया गया, जहाँ हज़ारों लोग उनकी अंतिम यात्रा में शामिल हुए।
उनकी मृत्यु के बाद, उनकी कविताएँ और भी ज़िंदा हो गईं। उनका लिखा हर शब्द, हर कविता, एक ऐसी विरासत है जो केवल फ़िलस्तीन तक सीमित नहीं है, बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए है जो अपनी ज़मीन, अपनी पहचान और अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा है।
महमूद दरवेश ने हमें सिखाया कि कविता सिर्फ़ शब्दों का खेल नहीं होती, यह इतिहास, स्मृति और भविष्य का पुल होती है। उन्होंने लिखा था:
“हम जीते रहेंगे
क्योंकि हमें जीने का अधिकार है
बिलकुल सूरज की तरह,
जो रोज़ उगता है
भले ही उसे हर शाम डूबना पड़े।”