जब पूरा देश अंग्रेजों के अन्याय से परेशान था तब गांधीजी ने अकेले ही अहिंसा के एक ऐसे विचार का नेतृत्व किया जिसकी बहुत सराहना नहीं की गई। वह हार मान सकते थे लेकिन अगर ऐसा होता था हम सभी जानते हैं कि उनके संघर्ष और दृढ़ता के बिना भारत आज एक स्वतंत्र राष्ट्र नहीं होता। उनके उपवास, मार्च, हड़तालें उनके धैर्य और दृढ़ संकल्प को दर्शाती हैं। जबकि कई युद्धों के परिणामस्वरूप विफलता हुई, गांधीजी के अहिंसक तरीकों के परिणामस्वरूप अंततः हमें आजादी मिली। गांधी जी धैर्य की प्रतिमूर्ति हैं। उन्होंने हमें दिखाया है कि सबसे अधिक उकसाने वाली स्थितियों के दौरान धैर्य रखने से न केवल हम मजबूत बनेंगे बल्कि समस्याएं भी हल हो जाएंगी। लेकिन सवाल है क्या बापू मानसिक रूप से हमेशा से इतने मजबूत थे? वे कौनसी घटनाएं है जिनसे वे महात्मा की छवि मे ढल पाए? ये जानने के लिए एक कहानी की तरफ चलते हैं। पोरबंदर में एक छोटे से, सफ़ेद रंग के घर में, मोहनदास गांधी का जन्म 2 अक्टूबर, 1869 को हुआ था। उनके माता-पिता करमचंद गांधी और पुतलीबाई थे। मोहनदास भी भारत में पैदा हुए लाखों अन्य बच्चों से कुछ बहुत अलग नहीं दिखता था। मोहनदास बचपन से बहुत शर्मीले किस्म का बच्चा थी , स्कूल में पढ़ाई में वे औसत से कम था; चोरों, भूतों, साँपों और अंधेरे से डरने वाला बच्चा। इन सब बातों के बावजूद फिर भी वह कोई साधारण बच्चा नहीं था क्यूंकि उसे लड़ना था और एक महान साम्राज्य पर विजय प्राप्त करनी थी और बिना हथियार उठाए अपने देश को आज़ाद कराना था। उन्हें महात्मा, महान आत्मा कहा जाना था। और हुआ भी कुछ वैसा ही उनके दिमाग के लचीलेपन और अपने विचारों मे उनके अटूट विश्वास ने उन्हें अब तक के सबसे महान व्यक्तियों में से एक बना दिया है।
मोहनदास, पुतलीबाई गांधी के छह बच्चों में सबसे छोटे थे। वह परिवार का पसंदीदा बच्चा था और उसके माता -पिता और उनके दोस्त उसे ‘मोनिया’ कहते थे। मोनिया अपनी माँ से बहुत प्यार करता था। लेकिन पिता से थोड़ा डरता था। बचपन में मोनिया को घर पर रहना कम ही पसंद था। वह खाना खाने के लिए घर जाता था और फिर बाहर खेलने के लिए भाग जाता था। यदि उसका कोई भाई उसे छेड़ता या मजाक में उसके कान खींचता तो वह अपनी माँ से शिकायत करने के लिए घर भाग जाता। ‘तुमने उसे क्यों नहीं मारा? पूछने पर मोहन कहता ‘आप मुझे लोगों को मारना कैसे सिखा सकती हैं, माँ? मुझे अपने भाई को क्यों मारना चाहिए? मुझे किसी को क्यों मारना चाहिए? ये उत्तर सुन खुद काबा गांधी भी हैरान रह गई कि भला इतनी सी उम्र मे छोटे बेटे को ऐसे विचार कहाँ से मिले।
जब पिता राजकोट के दीवान बनने के लिए पोरबंदर छोड़ गए तो मोनिया सिर्फ सात साल के थे। मोनिया को पोरबंदर, नीले समुद्र और बंदरगाह के जहाजों की बड़ी याद आती थी। राजकोट के एक स्कूल मे नाम लिखा दिया गया। शर्मीला मिजाज होने की वजह से मोनिया दूसरे बच्चों से आसानी से घुल-मिल नहीं पाता था। वह हर सुबह समय पर स्कूल जाता था और स्कूल खत्म होते ही घर वापस भाग जाता था। उनकी किताबें ही उनकी एकमात्र साथी थीं और वे अपना सारा खाली समय अकेले पढ़ने में बिताते थे। हालाँकि, उसका एक दोस्त था, उका नाम का एक लड़का। उका एक सफाईकर्मी लड़का था और अछूत था। एक दिन मोनिया को कुछ मिठाइयाँ दी गईं। वह उन्हें अपने साथ साझा करने के लिए तुरंत उका की ओर भागे।
‘मेरे पास मत आओ छोटे मालिक,’ उका ने कहा। ‘क्यों नहीं?’ मोनिया ने बहुत आश्चर्य से पूछा। ‘मैं तुम्हारे पास क्यों नहीं आ सकता?’ ‘मैं एक अछूत हूं,’ उका ने उत्तर दिया। मोनिया ने उका का हाथ पकड़ा और उन्हें मिठाई खिलाई। उसकी माँ ने खिड़की से यह देखा और उसने मोनिया को तुरंत अंदर आने का आदेश दिया। ‘क्या आप नहीं जानते कि ऊंची जाति को कभी किसी अछूत को नहीं छूना चाहिए? मां ने सख्ती से पूछा। ‘लेकिन क्यों नहीं, माँ?’ मोनिया ने पूछा। ‘मैं आपसे सहमत नहीं हूं, मां। मुझे उका को छूने में कुछ भी गलत नहीं लगता।वह मुझसे अलग तो नहीं है? मां के पास इसका कोई जवाब नहीं था।
एक बार मोनिया को श्रवण कथा पढ़ने का मौका मिला। श्रवण के माता-पिता बूढ़े और अंधे थे, और वह हमेशा उन्हें जूए पर लटकी हुई दो टोकरियों में अपने साथ रखता था। मोनिया श्रवण की अपने बूढ़े माता-पिता के प्रति भक्ति से बहुत प्रभावित हुई। ‘मुझे श्रवण जैसा बनना चाहिए,’ उसने संकल्प लिया। लगभग इसी समय उन्होंने एक राजा हरिश्चंद्र के बारे में एक नाटक भी देखा, जो अपने सत्य प्रेम के लिए प्रसिद्ध था। ‘हम सबको हरिश्चंद्र की तरह सच्चा क्यों नहीं होना चाहिए?’ वह लगातार खुद से पूछता रहा।
फिर कुछ और समय बीता। मोनिया अब मोहनदास बन चुका था। उस समय जीवन के रूढ़िवादी तरीकों में बदलाव के लिए सुधार आंदोलन भी चल रहा था। मोहनदास ने स्वयं सुना था कि कई अच्छे-अच्छे लोग मांस खाने लगे हैं, इसलिए उन्होंने मांस खाया। उन्हें मांस का स्वाद पसंद नहीं था लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया उन्हें मांस करी पसंद आने लगी। जब भी मोहनदास बाहर मांस खाता था, तो उसे अपनी माँ को खाना न खाने के लिए कोई न कोई बहाना बताना पड़ता था। वह जानता था कि यदि उसके माता-पिता को पता चलेगा कि उसने मांस खाया है तो वे उसे माफ नहीं करेंगे। तब वह मांस खाने के खिलाफ नहीं थे, लेकिन वह अपनी मां से झूठ बोलने के खिलाफ थे। यह भावना उसके दिल को कचोट रही थी और अंततः उसने फैसला किया कि वह दोबारा मांस को नहीं छूएगा।
मोहनदास ने शेख, अपने भाई और एक अन्य रिश्तेदार के साथ धूम्रपान भी शुरू कर दिया है। सिगरेट खरीदने के लिए उसे इधर-उधर से थोड़े-थोड़े पैसे जुटाने पड़ते थे। एक दिन कर्ज को चुकाने के लिए, मोहनदास ने सोने का एक टुकड़ा चुरा लिया। चोरी करना बहुत बड़ा पाप था। वह जानता था कि उसने बहुत बड़ा अपराध किया है। उसने निश्चय किया कि वह जीवन में कभी भी चोरी नहीं करेगा। उसने अपने अपराध की स्वीकारोक्ति लिखी और कागज अपने बीमार पिता को सौंप दिया। करमचंद गांधी ने कबूलनामा पढ़ा, पिता ने बिना कुछ कहे कागज फाड़ दिया। कागज के टुकड़े फर्श पर गिर गये। वह आह भरते हुए वापस अपने बिस्तर पर गिर पड़े। मोहनदास कमरे से बाहर चले गए, उनके चेहरे से आँसू बह रहे थे। उस दिन से मोहनदास अपने पिता से और भी अधिक प्रेम करने लगे।
विवाह के बाद, पुतलीबाई धर्म और धार्मिक प्रथाओं के प्रति दृढ़ता से प्रतिबद्ध थीं और उनकी भक्ति का गांधीजी पर बहुत प्रभाव पड़ा। वह अपनी धार्मिक प्रथाओं का इतनी निष्ठा से पालन करती थीं कि अपने जीवन में एक भी दिन उन्होंने बिना स्नान किए और प्रार्थना पूरी करने के बाद भोजन नहीं किया। वह बिना किसी परेशानी के लगातार दो या तीन दिन तक उपवास भी करती थी। उनकी माँ की धर्म के प्रति अटूट भक्ति और शारीरिक प्रतिबंधों को सहने की उनकी सहनशक्ति का शायद गांधी पर बड़ा प्रभाव पड़ा, जिन्होंने बाद में जीवन में उन्हीं सिद्धांतों और मूल्यों को प्रतिबिंबित किया। गांधीजी भी स्वतंत्रता संग्राम में शांतिपूर्वक विरोध करते हुए अपनी मां की तरह उपवास करेंगे।
1885 में, गांधी के पिता करमचंद को फिस्टुला का गंभीर दौरा पड़ा अपने पिता की मृत्यु के तुरंत बाद, गांधी दंपत्ति के घर एक बच्चे का जन्म हुआ, जब मोहनदास केवल 16 वर्ष के थे और उनकी पत्नी कस्तूरबा 17 वर्ष की थीं। बच्चा मुश्किल से कुछ दिनों तक ही जीवित रह सका। लगातार दो मौतों, पहले उनके पिता की और फिर उनके नवजात बच्चे की, ने गांधीजी को बहुत परेशान किया। लेकिन उन्होंने खुद को सम्भाला और अपनी पढ़ाई जारी रखी। नवंबर 1887 में 18 साल की उम्र में अहमदाबाद से हाई स्कूल में स्नातक की उपाधि प्राप्त की।
आज 2 अक्टूबर है, गांधी जयंती के मौके पर उनके बचपन के ये किस्सेऔर यादें हैं जिनपर गांधी का गहरा प्रभाव पड़ा। इन्हीं घटनाओं से मिली सीख के बलबूते शर्मिला सा मोनिया एक दिन भारत का राष्टपिता महात्मा गांधी बन गया। हम गांधीजी की उनके सभी प्रयासों और आजादी की लड़ाई के दौरान किए गए संघर्ष के लिए प्रशंसा करते हैं। लेकिन जिस चीज़ के बारे में बात नहीं की गई वह यह है कि वह दोषरहित नहीं थे। फर्क सिर्फ इतना था कि जैसा कि उन्होंने खुद कहा था,”मैं अपनी अपूर्णताओं के प्रति अत्यंत कष्टपूर्वक सचेत हूँ और उनमें ही मेरी सारी शक्ति निहित है क्योंकि किसी व्यक्ति के लिए अपनी सीमाओं को जानना एक दुर्लभ बात है।” गांधीजी का जीवन और सिद्धांत प्रेरणादायक हैं। आप अहिंसा की सकारात्मकता से धैर्य रखना, क्षमा करना और नकारात्मकता का विरोध करना सीख सकते हैं। जब शर्मीले, डरे हुए गांधी बड़े होकर स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं तो यह विश्वसनीय है कि कुछ भी हो सकता है।