हाल ही में, आगरा की एससी-एसटी कोर्ट ने पनवारी कांड में 34 लोगों को दोषी करार दिया है। यह फैसला 36 साल की लंबी कानूनी लड़ाई के बाद आया है।
पनवारी कांड भारतीय सामाजिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण और संवेदनशील अध्याय है, जिसने जातीय संघर्ष, न्यायिक प्रक्रिया और सामाजिक न्याय की अवधारणाओं को गहराई से प्रभावित किया है। यह घटना उत्तर प्रदेश के आगरा जिले के पनवारी गांव में 22 जून 1990 को घटित हुई थी।
दरअसल पनवारी गांव एक जाट बहुल क्षेत्र है, वहां अनुसूचित जाति के चोखेलाल जाटव की बेटी मुंद्रा की बारात आनी थी। लेकिन बारात को एक जगह से निकालने को लेकर जाट समुदाय ने विरोध जताया, जिससे तनाव उत्पन्न हुआ। विवाद इतना बढ़ गया कि पथराव, फायरिंग और आगजनी की घटनाएं हुईं, जिसके बाद प्रशासन को आगरा में 10 दिनों तक कर्फ्यू लगाना पड़ा। इस हिंसा में कई लोगों की जान गई जिसका सही आंकड़ा कभी सामने नही आये और दलित समुदाय को भारी नुकसान उठाना पड़ा।
इस मामले में भाजपा विधायक चौधरी बाबूलाल सहित कई लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया था। 12 अप्रैल 2006 को विशेष न्यायाधीश जनार्दन गोयल ने मुख्य अभियुक्त चौधरी बाबूलाल और अन्य के खिलाफ आरोप तय किए। हालांकि, 32 वर्षों की लंबी न्यायिक प्रक्रिया के बाद, 4 अगस्त 2022 को विशेष न्यायाधीश (MP – MLA) कोर्ट नीरज गौतम ने साक्ष्यों के अभाव में सभी आरोपियों को दोषमुक्त करार दिया।
अदालत में दूसरे पक्ष द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य अपर्याप्त पाए गए। घटनास्थल से किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई, गवाहों के बयान दर्ज करने में देरी हुई, और कई गवाह अपने बयान से मुकर गए। इन कारणों से अदालत ने आरोपियों को बरी कर दिया।
कोर्ट के निर्णय ने दलित समुदाय में असंतोष उत्पन्न किया। वरिष्ठ अधिवक्ता और समाजसेवी सुरेश चंद सोनी ने कहा कि पनवारी कांड में विभिन्न दलों के नेताओं ने अपनी राजनीतिक रोटियां सेकी थीं। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि मायावती, जो दलितों की बड़ी हिमायती बनती हैं, ने इस कांड के मुख्य आरोपी चौधरी बाबूलाल को मंत्री पद दे दिया।
यह घटना न केवल न्यायिक प्रणाली की चुनौतियों को दिखाती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि सामाजिक समानता की दिशा में कितनी लंबी राह तय करनी है।