2024 की प्रेस स्वतंत्रता इंडेक्स की रिपोर्ट जारी हो चुकी है। इस रिपोर्ट ने देश में प्रेस की आजादी पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं। इस इंडेक्स में कुल 180 देशों के नाम शामिल थे और उनमें भारत का रैंक 150 रहा है। एक विकसित देश होने के बावजूद देश का यह रैंक चिंताजनक है। चिंताजनक इसलिए भी क्योंकि पाकिस्तान और श्रीलंका जैसे अविकसित देशों की प्रेस के पास भी भारत से ज्यादा स्वतंत्रता है।
हालांकि, पिछले साल के मुकाबले में इस साल थोड़ा सुधार आया है। पिछले साल भारत का रैंक 161 था। लेकिन इसके पहले की रिपोर्ट को देखा जाए तो 2003 में भारत का रैंक 100 था। इस आंकड़े से यह साफ है कि पिछले दो दशक में भारत में बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी एक चिंता का विषय बन गई है। एक रिपोर्ट के मुताबिक 2014 से 2019 के बीच 40 पत्रकारों की हत्याओं के मामले दर्ज हुए थे। उन मामलों के रिकॉर्ड्स से पता चला कि, आवाज़ उठाने के लिए उन पत्रकारों पर हमला किया गया था।
2014 के बाद प्रेस की आजादी में और गिरावट आ गई है। 2014 के बाद से सरकार या उसकी विचारधारा की आलोचना करने पर पत्रकारों पर हमले बढ़ गए हैं। ऐसे बहुत से मामले देखने मिले हैं, जहां सरकार की आलोचना करने वाले पर पत्रकारों को धमकी, उत्पीड़न और पुलिस निगरानी का सामना करना पड़ा है। पिछले कुछ समय से सरकार के विरोध में बयान देने पर उन पर गैरकानूनी गतिविधियां अधिनियम (UAPA) और विदेशी योगदान अधिनियम (एफसीआरएफ) जैसी धाराएं लागू होने लगी हैं।
इसके अलावा, वामपंथी का समर्थन करने वाले मीडिया हाउस एनडीटीवी (NDTV) और द वायर (The wire) के दफ्तरों पर सरकार के विरोध में बोलने के लिए 2021 में छापेमारी भी पड़ी थी।
प्रेस ही नहीं बल्कि अब आम जनता की अभिव्यक्ति आजादी में भी रोक लगना शुरू हो चुका है। ऐसे बहुत से मामले सामने आए, जहां सरकार या किसी राजनेता के विरोध में बोलने के लिए उन पर कार्यवाई हो चुकी है। उदहारण स्वरूप, मुंबई के सोमैया स्कूल की प्रिंसिपल परवीन शेख को सोशल मीडिया पर एक फिलिस्तीन समर्थक पोस्ट पसंद करने के कारण नौकरी से निकाल दिया गया है। शेख पर सोशल मीडिया के पोस्ट के माध्यम से “हमास समर्थक, इस्लाम समर्थक और हिंदू विरोधी” विचारों का समर्थन करने का आरोप लगाया गया था।
यह सब देखते हुए ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे कुछ समय बाद देश में प्रेस और अभिव्यक्ति की आजादी नामभर की ही रह जाएगी।