“धूप जब पत्तियों पर ठहरती है,
और हवा जब कोई पुराना गीत गुनगुनाती है,
तो कहीं न कहीं, कोई पंक्ति गुलज़ार की याद दिला देती है।
वो पंक्तियाँ जो केवल काग़ज़ पर नहीं,
ज़िंदगी की सिलवटों पर लिखी जाती हैं।”
गुलज़ार… ये नाम लेते ही ज़ुबान पर हर बार कोई न कोई लफ़्ज़ ठहर जाता है, कोई अधूरी सी नज़्म पूरी होने लगती है। लेकिन उनके असली नाम ‘संपूरण सिंह कालरा’ को कम ही लोग जानते हैं। पाकिस्तान के दीना शहर में 18 अगस्त 1934 को जन्मे गुलज़ार, बँटवारे के ज़ख़्म लेकर भारत आए, और फिर ज़िंदगी के हर दर्द को शेर बना दिया, नज़्म बना दिया, कहानी बना दी।
वो सिर्फ़ एक शायर नहीं हैं। वो एक फ़लसफ़ा हैं। एक वो मौन सुबह हैं, जिसमें धूप भी धीमे-धीमे उतरती है। वो उन ख़ामोशियों के रचयिता हैं, जो सबसे ज़्यादा बोलती हैं। गुलज़ार साहब की लेखनी में शब्द नहीं अनुभव से भरी भावनायें होती हैं, वो भावनायें जो हम अक्सर दुनिया की तेजी में नजरअंदाज कर देते हैं। जब वो लिखते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे वक़्त भी थोड़ा थमकर उनके लफ़्ज़ों के नीचे बैठ गया हो।
“आँखों से आँसुओं के मरासिम पुराने हैं
मेहमाँ ये घर में आएँ तो चुभता नहीं धुआँ
यूँ भी इक बार तो होता कि समुंदर बहता
कोई एहसास तो दरिया की अना का होता
आप के बाद हर घड़ी हम ने
आप के साथ ही गुज़ारी है
दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई
जैसे एहसान उतारता है कोई”
-गुलज़ार
हिंदी सिनेमा को उन्होंने सिर्फ़ फ़िल्में नहीं दीं। उन्होंने ज़िंदगी दी। ‘आंधी’, ‘मौसम’, ‘माचिस’, ‘इजाज़त’ जैसी फ़िल्में उनके किरदारों की तरह नहीं, जैसे किसी कवि की सांसों की तरह जीती जाती हैं। निर्देशक के तौर पर उन्होंने जो संवेदनशीलता दिखाई, वो आज भी दुर्लभ है। और गीतकार के रूप में… क्या ही कहें! “तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नहीं” या “दिल ढूंढता है फिर वही फ़ुर्सत के रात दिन!” ये महज़ गाने नहीं हैं, ये इंसानी जज़्बात की सबसे सच्ची परिभाषाएँ हैं।
गुलज़ार साहब का लिखा हर गीत,हर कहानी,हर नज़्म,ज़िंदगी के किसी मोड़ पर हम सबका हमसफ़र बनता है। जब हम बच्चे तो ‘जंगल-जंगल बात चली है’गुनगुनाया, जवानी में ‘हमने देखी है उन आँखों की महकती ख़ुशबू’ महसूस की, और अब अधेड़ उम्र में‘ दिल ढूंढता है फिर वही फ़ुर्सत के रात दिन’ ढूँढ रहे हैं। वो जो बोलते हैं, उसमें सन्नाटा भी कविता होता है। वो जो चुप रहते हैं,उसमें भी कहानियाँ पलती हैं।
उनकी उपलब्धियों की सूची जितनी लंबी है, उतनी ही विनम्र उनकी आवाज़। पद्म भूषण से लेकर साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार। हर सम्मान उनकी इस बात की तस्दीक करता है कि अगर शब्दों का कोई जादूगर होता है, तो वो गुलज़ार ही हैं।
लेकिन जो उन्हें सबसे अलग बनाता है, वो है उनकी सादगी। सफेद कुर्ता-पायजामा, एक सौम्य मुस्कान, और बोलने से ज़्यादा सुनने की आदत। वो जब चुप होते हैं, तब भी लगता है जैसे कुछ कह रहे हैं। शायद यही ख़ामोशी उन्हें गुलज़ार बनाती है…हर उस वक़्त में जब हमें शब्दों की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है।
“काँच के पीछे चाँद भी था और काँच के ऊपर काई भी
तीनों थे हम वो भी थे और मैं भी था तन्हाई भी
यादों की बौछारों से जब पलकें भीगने लगती हैं
सोंधी सोंधी लगती है तब माज़ी की रुस्वाई भी
दो – दो शक्लें दिखती हैं इस बहके से आईने में
मेरे साथ चला आया है आप का इक सौदाई भी
कितनी जल्दी मैली करता है पोशाकें रोज़ फ़लक
सुबह ही रात उतारी थी और शाम को शब पहनाई भी
ख़ामोशी का हासिल भी इक लम्बी सी ख़ामोशी थी
उन की बात सुनी भी हम ने अपनी बात सुनाई भी
कल साहिल पर लेटे लेटे कितनी सारी बातें कीं
आप का हुंकारा न आया चाँद ने बात कराई भी”
—गुलज़ार
गुलज़ार सिर्फ़ एक नाम नहीं हैं। वो एक एहसास हैं, जो हर दिल के किसी न किसी कोने में बसता है। वो हमारे इश्क़ में, हमारी जुदाई में, हमारी तन्हाई में, और हमारे बचपन की किसी भूली-बिसरी दोपहर को अभी भी अमर बना रहें हैं।
वो हर जनरेशन के दिल में हैं, क्योंकि उन्होंने कभी समय के साथ चलने की कोशिश नहीं की बल्कि समय को अपने साथ बिठाकर लिखा।
अंत में सिर्फ यही की, गुलज़ार साहब, आप हमारे लिए एक ‘गुल’ नहीं, पूरा ‘बाग़’ हैं। आपकी ख़ामोशियाँ, आपकी नज़्में, आपकी कहानियाँ… हमारे जीने का तरीक़ा बन चुकी हैं। आप ज़िंदा हैं, हर उस अल्फ़ाज़ में,जो दिल से निकला और फिर दुनिया से नहीं गया।