“रात के आँचल में छुपे चाँद और सितारों की तरह, उनकी मोहब्बत भी चमकी, मगर पूरी न हो सकी। देव आनंद और सुरैया…एक ऐसा इश्क़, जो फिल्मी पर्दे से निकलकर असल ज़िन्दगी की रूह बन गया, लेकिन तक़दीर की गिरहों में उलझकर अधूरा रह गया।”
शायद साल 2015 की बात होगी, मैं आठवीं क्लास में था। लंच के बाद हॉस्टल आकर लेटा था कि मेरे एक जूनियर ने दैनिक भास्कर लाकर मेरी टेबल पर रख दिया। हॉस्टल कप्तान होने और जूनियर का पसंदीदा होने के कुछ फायदों में से एक ये भी था। मैंने पेपर पढ़ने के बाद रसरंग उठाया। माफ कीजिएगा पर उस समय के रसरंग और अब के रसरंग में ज़मीन – आसमान का अन्तर है। तब के लेखन कि बात ही कुछ और थी। ख़ैर, दूसरे पन्ने पर सुरैया – देव साहब की एक छोटी सी तस्वीर के साथ एक लेख लिखा हुआ था। मैंने उससे पढ़ना शुरू किया और कुछ बहुत अलग अनुभव किया, जो मैं शब्दों में ठीक – ठीक नहीं समझा पाउंगा। हाँ अब सोच सकते हैं कि उस लेख का किस्सा और लेखन इतना अद्भुत था कि, मात्र आठवीं का एक बच्चा लेख खत्म होने के बाद फ़ूट – फ़ूट कर रो रहा था। देव साहब और सुरैया की अधूरी मोहब्बत।
साल था 1948। फिल्म विद्या की शूटिंग चल रही थी। देव आनंद नए थे, मगर उनकी आँखों में सपनों की एक पूरी दुनिया थी। सुरैया उस वक़्त की सबसे बड़ी अभिनेत्री थीं, जिनकी आवाज़ और मुस्कान पर लाखों दीवाने थे। मगर देव को देख, उनके दिल की धड़कन भी कुछ तेज़ हो गई। कैमरे के पीछे छुपकर, वो उस नौजवान को देखतीं, जो अपनी मासूमियत में बेमिसाल था। और देव? वो तो पहले ही सुरैया की आवाज़ के क़ैदी बन चुके थे।
फिल्म जीत (1949) के सेट पर दोनों के बीच की दूरी कम होने लगी। सुरैया की हँसी देव के कानों में शहद की तरह घुलती और देव की बातें सुरैया के दिल में एक अजीब-सी हलचल मचातीं। लेकिन इस इश्क़ की सबसे बड़ी गवाह बनी वो एक नाव, जो दोनों को करीब ले आई।
फिल्म विद्या का एक सीन था, जिसमें देव और सुरैया नाव में थे। अचानक, नाव डगमगाई और सुरैया गिरने लगीं। देव ने झट से उन्हें थाम लिया। इस एक लम्हे ने सुरैया को एहसास दिलाया कि उनका दिल अब उनके काबू में नहीं रहा। देव ने भी मुस्कुराकर देखा और शायद वही पहली बार था, जब दोनों की आँखों ने कह दिया…”हाँ, ये प्यार है।”
मुंबई की गलियों में उनका प्यार परवान चढ़ रहा था। फ़ोन पर धीरे-धीरे बातें करना, एक-दूसरे को चिट्ठियाँ भेजना, और फिर किसी शूटिंग के बहाने मिलना…ये सब उनकी मोहब्बत के छोटे-छोटे रंग थे। देव, सुरैया के घर के पास कार पार्क कर घंटों उनका इंतज़ार करते, बस एक झलक पाने के लिए। और सुरैया, अपनी खिड़की से उन्हें देखतीं और मन ही मन मुस्कुरातीं।
देव ने एक दिन अपने प्यार का इज़हार करने के लिए एक हीरे की अंगूठी खरीदी। मौका मिला, तो उन्होंने सुरैया को वो अंगूठी पहनाई और कहा, “एक दिन तुम मेरी दुल्हन बनोगी।” सुरैया की आँखें भर आईं, मगर उनके दिल में एक डर भी था…उनका परिवार, उनकी नानी, जो इस रिश्ते को कभी मंज़ूर नहीं करेंगी।
सुरैया के घर में देव आनंद के नाम का ज़िक्र भी गुनाह था। उनकी नानी इस रिश्ते के सख्त खिलाफ थीं, क्योंकि देव हिंदू थे और सुरैया मुस्लिम। सुरैया ने अपनी नानी के खिलाफ जाने की कोशिश की, मगर उनका परिवार बहुत सख्त था। एक रोज़, जब उनकी माँ और नानी ने जबरदस्ती वो अंगूठी पानी में फेंक दी, तब सुरैया समझ गईं कि उनका प्यार बस एक ख्वाब बनकर रह जाएगा।
आख़िरकार, वो दिन आ ही गया, जब देव को कहना पड़ा…”अगर तुम मेरे साथ नहीं चल सकतीं, तो मैं तुम्हें तकलीफ में नहीं देख सकता।” सुरैया चुप थीं, मगर उनकी आँखें बोल रही थीं। उन्होंने एक आखिरी खत देव को लिखा…”तुम मेरी सबसे प्यारी याद हो, मगर मेरी तक़दीर तुम्हारे साथ नहीं लिखी गई।”
देव आनंद ने बाद में कल्पना कार्तिक से शादी कर ली, मगर उन्होंने कभी नहीं छुपाया कि सुरैया उनकी पहली और सबसे गहरी मोहब्बत थीं। सुरैया ने फिर कभी शादी नहीं की। वो उम्रभर उस इश्क़ को दिल में लिए रहीं, जो मुकम्मल न हो सका।
देव और सुरैया की कहानी एक ऐसे अधूरे गीत की तरह है, जिसकी धुन अब भी हवा में तैरती है। वो प्यार जो धर्म, परिवार और समाज की दीवारों से हार गया, मगर जज़्बातों की दुनिया में हमेशा के लिए अमर हो गया। दोनों के बीच फ़िल्माये गए उस गीत की तरह…”माना के क़िसमत के तक़रार है तक़रार है
खेवट के हाथों में पतवार है
माना के क़िसमत के तक़रार है
खेवट के हाथों में पतवार है
मंज़िल पे अपनी बढ़े जायेंगे
जीवन कीइ नैया को खेते हुये खेते हुये
चले जायेंगे चले जायेंगे
किनारे-किनारे चले जायेंगे”