18 मार्च 1919 का दिन भारतीय इतिहास में एक काले अध्याय के रूप में दर्ज है। इस दिन ब्रिटिश सरकार ने Rowlatt Act को लागू किया, जो भारतवासियों के नागरिक अधिकारों और स्वतंत्रता पर कठोर प्रतिबंध लगाने वाला कानून था। इस एक्ट ने न केवल भारतीय समाज को झकझोर कर रख दिया, बल्कि पूरे देश में असंतोष और विरोध की ज्वाला भी भड़का दी। यह वही कानून था जिसे महात्मा गांधी ने “काला कानून” कहा था और इसके विरोध में उन्होंने सत्याग्रह का आह्वान किया था।
यह स्मरणीय है कि यह कानून उस समय लागू किया गया जब भारतीयों ने प्रथम विश्व युद्ध (1914 – 1918) के दौरान ब्रिटिश साम्राज्य का समर्थन किया था, उम्मीद थी कि बदले में उन्हें कुछ संवैधानिक अधिकार मिलेंगे। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों की स्वतंत्रता देने के बजाय उन्हें और कठोर दमनकारी कानूनों में जकड़ने का प्रयास किया।
रौलट एक्ट को अराजक और क्रांतिकारी अपराध अधिनियम (Anarchical and Revolutionary Crimes Act, 1919) के नाम से भी जाना जाता है। इस कानून को ब्रिटिश न्यायाधीश सर सिडनी रौलट की अध्यक्षता में बनी एक समिति की सिफारिशों के आधार पर लागू किया गया था, इसलिए इसे रौलट एक्ट कहा गया।
इस कानून के तहत ब्रिटिश सरकार को विशेष अधिकार और शक्तियाँ दी गईं, जिनका उपयोग भारत में राजनीतिक गतिविधियों को दबाने और ब्रिटिश शासन के खिलाफ उठने वाली आवाज़ों को कुचलने के लिए किया गया। इस कानून के कुछ प्रमुख प्रावधान इस प्रकार थे…सरकार किसी भी भारतीय को बिना किसी मुकदमे के दो साल तक जेल में बंद कर सकती थी। गिरफ्तार व्यक्ति को अपनी सफाई देने या उच्च न्यायालय में अपील करने का अधिकार नहीं था। समाचार पत्रों, पत्रिकाओं और अन्य प्रकाशनों पर कड़ी सेंसरशिप लगाई गई। जिन व्यक्तियों पर मुकदमा चलाया जाता, उनका ट्रायल गुप्त रूप से किया जाता, जिसमें न्यायालय में उनके खिलाफ प्रस्तुत साक्ष्यों को सार्वजनिक नहीं किया जाता। किसी भी भारतीय को केवल शक के आधार पर गिरफ्तार किया जा सकता था, चाहे उसके खिलाफ कोई पुख्ता सबूत हो या न हो।
इस कानून का मूल उद्देश्य था 1915 के भारतीय सुरक्षा अधिनियम (Defence of India Act, 1915) को स्थायी रूप से जारी रखना। यह अधिनियम प्रथम विश्व युद्ध के दौरान लागू किया गया था और इसे युद्ध के बाद समाप्त होना था, लेकिन अंग्रेजों ने इसे हटाने की बजाय, और कठोर बना दिया।
इस कानून का पूरे भारत में ज़बरदस्त विरोध हुआ। सभी राजनीतिक दलों, स्वतंत्रता सेनानियों और आम जनता ने इसे भारतीयों की स्वतंत्रता पर आक्रमण बताया। महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, मोहम्मद अली जिन्ना, मदन मोहन मालवीय, मोतीलाल नेहरू और अन्य नेताओं ने इसके खिलाफ आवाज उठाई।
महात्मा गांधी ने सत्याग्रह सभा का गठन किया और 6 अप्रैल 1919 को पूरे देश में हड़ताल और शांतिपूर्ण प्रदर्शन का आह्वान किया। इस विरोध में पूरे भारत में दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार और मद्रास समेत सभी बड़े शहरों में जनता सड़कों पर उतर आई।
पंजाब में इस कानून के खिलाफ विरोध बहुत तीव्र था, खासकर अमृतसर और लाहौर में। 10 अप्रैल 1919 को डॉ. सत्यपाल और डॉ. सैफुद्दीन किचलू जैसे लोकप्रिय नेताओं की गिरफ्तारी के बाद अमृतसर में व्यापक विरोध हुआ। इस विरोध को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने अमृतसर में गोलीबारी करवाई और यह विरोध जलियांवाला बाग हत्याकांड (13 अप्रैल 1919) की ओर बढ़ा।
13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन, जब हजारों लोग अमृतसर के जलियांवाला बाग में शांतिपूर्ण सभा कर रहे थे, तब जनरल डायर ने अपने सैनिकों को निर्दोष नागरिकों पर गोलियां चलाने का आदेश दिया। लगभग 10 मिनट में 1000 से अधिक निर्दोष भारतीय मारे गए और 1500 से अधिक घायल हुए। इस नरसंहार ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया और यह घटना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण मोड़ बन गई।
जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद इस कानून के खिलाफ विरोध और तेज़ हो गया। इसके परिणामस्वरूप…पूरी दुनिया में ब्रिटिश सरकार की निंदा हुई और उनके क्रूर शासन की आलोचना की गई। गांधीजी ने 1920 में असहयोग आंदोलन की शुरुआत की। रौलट एक्ट और जलियांवाला बाग हत्याकांड ने भारतीयों को स्वतंत्रता संग्राम में और अधिक संगठित किया। ब्रिटिश सरकार ने 1922 में रौलट एक्ट को वापस ले लिया, लेकिन इसका प्रभाव लंबे समय तक भारतीय राजनीति में बना रहा।
रौलट एक्ट भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक ऐसा अध्याय था जिसने भारत के लोगों को ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों से परिचित कराया और स्वतंत्रता की लड़ाई को और मजबूती दी। इस काले कानून ने भारतीयों को यह समझा दिया कि ब्रिटिश हुकूमत कभी भी भारतीयों को समान अधिकार नहीं देगी, और अपनी स्वतंत्रता के लिए उन्हें खुद लड़ना होगा।
इस कानून का अंत भले ही हुआ, लेकिन इसने जो क्रांति की चिंगारी जलाई, वह 1947 में भारत की स्वतंत्रता के रूप में पूर्ण रूप से ज्वलंत हुई। रौलट एक्ट का विरोध केवल एक कानून के खिलाफ संघर्ष नहीं था, बल्कि यह भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति की दिशा में एक निर्णायक मोड़ था।