चारो तरफ दंगा फ़ैल गया था। पूरो के गाँव में, जो अब पाकिस्तान में आ गया था, मुसलमान ज्यादा थे और हिन्दू गिनती मात्र, गाँव के डरे सहमे सारे हिंदू एक हवेली में छुपे थे। यदि कोई हवेली से बाहर आता तो मार दिया जाता था। एक रात जब हिन्दू मिलिट्री के ट्रक गाँव में आए तो लोगों ने हवेली में आग लगा दी। मिलिट्री ने आग बुझा कर लोगों को बाहर निकाला। “आधे जले हुए तीन आदमी भी निकाले गए, जिनके शरीर से चर्बी बह रही थी, जिनका मांस जलकर हड्डियों से अलग-अलग लटक गया था। कोहनियों और घुटनों पर से जिनका पिंजर बाहर को निकल आया था। लोगों के लारियों में बैठते-बैठते उन तीनों ने जान तोड़ दी। उन तीनों की लाशों को वही फेंककर लारियाँ चल दीं। उनके घर वाले चीखते-चिल्लाते रह गए, पर मिलिट्री के पास उन्हें जलाने-फूंकने का समय नहीं था ।” इस दर्दनाक मंजर को शब्दों मे बयां किया गया है पंजाबी हिन्दी भाषा की सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक अमृता प्रीतम की महानकृति ‘पिंजर’ मे। पिंजर का मतलब एक पिंजरा या कंकाल। पिंजर अमृता प्रीतम ने अपना यादगार किरदार पूरो बनाया है, जो महिलाओं के खिलाफ हिंसा और मानवता की हानि के बीच संघर्ष करती है और फिर अस्तित्वगत नियति के प्रति उसका अंतिम समर्पण होता है।
यूँ तो हिंदुस्तान — पाकिस्तान विभाजन की पृष्ठभूमि पर कई उपन्यास लिखे गए लेकिन पिंजर का उनमें अपना अलग और महत्वपूर्ण स्थान है। पिंजर उपन्यास में मुख्यतः दो पात्र हैं पहला पात्र पूरो है जो कि हिंदू परिवार से है और 14 वर्ष की लड़की है दूसरा मुख्य पात्र है रशीद जो कि 22 वर्ष का एक मुस्लिम नौजवान है। इन दोनों के परिवारों में पुरानी दुश्मनी है जो कि इन के दादा परदादा के समय से चली आ रही है। इस दुश्मनी का मार किस पर पड़ी यह इस उपन्यास में दर्शाया गया है। पिंजर हजारों-लाखों महिलाओं की व्यथा की दास्तान है, उस समय की व्यथा जब विभाजन की लकीर औरतों के लहू से सींची गयी।
विभाजन की त्रासदी के 75 वर्ष बाद भी इसके घाव उतने ही ताज़ा है, बंटवारा मे टुकड़े सिर्फ भारत की धरती ही नही दोनों तरफ के कई शरीरों का भी बंटवारा हुआ कुछ उनमे जीवित थे कुछ मुर्दे, यह बात जाने कितनी ही बार कितने लेखकों/लेखिकाओं ने उल्लेख किया है। जैसे मंटो का एक अफ़साना ‘खोल दो’ आपको रूह को भी झकझोर कर रख देता है। यशपाल के ‘झूठा-सच’ और भीष्म साहनी के ‘तमस’ भी मन पर गहरी छाप छोड़ते है। कहानियां, किताबें कई और भी हैं। लेकिन पिंजर आपको कुछ और अनुभव कराती है। बाद मे इस किताब पर आधारित एक पीरियड फिल्म भी बनाई गई जिसके निर्देशक डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी थे। फिल्म धीरे धीरे एक कल्ट फैवरेट बन गई।
आमतौर पर साहित्यकार अपनी कृतियों पर बनी फिल्मों से असंतुष्ट रहते हैं। डॉ. द्विवेदी ने अमृता प्रीतम को कैसे उपन्यास के अधिकार देने के लिए राजी किया? डॉ. द्विवेदी कहते हैं, ‘उन्होंने मेरा टीवी धारावाहिक चाणक्य देखा था। मैंने स्क्रिप्ट लिखने के बाद उन्हें भेजी और बताया कि जरूरी परिवर्तन किए हैं, आप देख लें। उनका जवाब था,’ “मैंने उपन्यास लिख कर अपना काम पूरा किया। मैं जानती हूं कि साहित्य व सिनेमा अलग-अलग माध्यम हैं। सिनेमा के लिए आपको परिवर्तन करने पडे होंगे। मुझे आप पर विश्वास है। आप अपनी विधा के माहिर हैं। मैं स्क्रिप्ट देखना और पढना नहीं चाहती। आप फिल्म बनायें। तो इस तरह पिंजर ने एक उपन्यास से लेकर सिनेमा तक का सफर तय किया। पिंजर को आज भी भारत के विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखे गए सर्वश्रेष्ठ साहित्य में से एक माना जाता है।