वह मार्च का ही महीना था, जब हिमालय की शांत वादियों में गूंज उठी थी एक क्रांति की आग…जब एक देश की आत्मा छटपटा रही थी और दूसरा, अपनी क्रूर शक्ति का प्रदर्शन कर रहा था।
20 मार्च 1959, यह तारीख इतिहास के उन पन्नों में दर्ज है, जब तिब्बत के लोगों ने चीनी दमन के खिलाफ विद्रोह किया और उनकी यह आवाज पूरी दुनिया में गूंज उठी। इसी दिन पहली बार भारतीय सरकार ने आधिकारिक रूप से इस बात की पुष्टि की कि तिब्बत में चीनी सेना के अत्याचारों के खिलाफ व्यापक विरोध हो रहा है। यह विद्रोह केवल एक दिन की घटना नहीं थी, बल्कि यह उस संघर्ष की चरम अवस्था थी, जो वर्षों से जल रहा था।
लेकिन यह कहानी केवल तिब्बत तक सीमित नहीं थी। इसका गहरा संबंध भारत और चीन के आपसी रिश्तों, उनके संघर्षों और अंततः 1962 के युद्ध तक जाता है। इस घटनाक्रम को समझने के लिए हमें पीछे जाना होगा – उस समय तक, जब भारत और चीन के संबंध एक अलग मोड़ पर खड़े थे।
तिब्बत सदियों से एक स्वतंत्र और विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान रखने वाला क्षेत्र रहा था। यह बौद्ध धर्म की आत्मा और शांति का प्रतीक था, लेकिन चीन की नजर में यह एक रणनीतिक भूभाग था, जिसे उसके नियंत्रण में होना चाहिए।
1949 में जब चीन में माओ त्से-तुंग के नेतृत्व में साम्यवादी क्रांति सफल हुई, तब ‘पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना’ की स्थापना हुई। माओ की नीति स्पष्ट थी चीन की भौगोलिक अखंडता को वापस स्थापित करना। इस नीति के तहत 1950 में चीनी सेना ने तिब्बत पर आक्रमण कर दिया।
भारत ने 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त की थी और पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में एक नई विदेश नीति तैयार की जा रही थी। नेहरू का मानना था कि भारत और चीन को शांतिपूर्ण नीति अपनानी चाहिए, जिसे ‘पंचशील’ सिद्धांत कहा गया। इस सिद्धांत के अनुसार, भारत ने तिब्बत को चीन का हिस्सा मानने की सहमति दी, यह सोचकर कि इससे चीन के साथ दोस्ती बनी रहेगी।
लेकिन चीन का उद्देश्य कुछ और था। 1951 तक, तिब्बत पूरी तरह से चीनी नियंत्रण में आ चुका था। दलाई लामा को एक कठपुतली शासन के रूप में रखा गया, लेकिन तिब्बत की जनता यह कभी स्वीकार नहीं कर पाई। अगले कुछ वर्षों में, तिब्बती स्वतंत्रता संग्राम अंदर ही अंदर सुलगने लगा।
1959 तक, तिब्बती जनता का आक्रोश चरम पर पहुंच चुका था। 10 मार्च को ल्हासा में हजारों तिब्बती नागरिक सड़कों पर उतर आए और चीन के खिलाफ नारे लगाने लगे। उन्होंने दलाई लामा की सुरक्षा की मांग की, क्योंकि यह खबर फैल रही थी कि चीनी सेना उन्हें बंदी बनाना चाहती है।
20 मार्च की रात, चीन ने खुलेआम हमला कर दिया। ल्हासा की सड़कों पर गोलियों की गूंज सुनाई देने लगी। हजारों तिब्बती नागरिक मारे गए, मठों और बौद्ध स्तूपों को ध्वस्त कर दिया गया, और विद्रोह को बेरहमी से कुचल दिया गया।
लेकिन इस हाहाकार के बीच, दलाई लामा अपने कुछ विश्वस्त साथियों के साथ भारत की ओर निकल पड़े। 31 मार्च 1959 को उन्होंने भारत में शरण ली। भारत सरकार ने उन्हें शरण देकर तिब्बती आंदोलन का समर्थन किया, जिससे भारत-चीन संबंधों में तनाव और बढ़ गया।
1959 के तिब्बती विद्रोह और दलाई लामा को शरण देने के बाद चीन भारत से नाखुश था। लेकिन असली टकराव सीमा विवाद को लेकर था।
भारत और चीन के बीच सीमा को लेकर विवाद लंबे समय से चला आ रहा था। मुख्य रूप से दो क्षेत्र विवादित थे। पहला अक्साई चिन जो लद्दाख के पास था, लेकिन चीन इसे शिनजियांग और तिब्बत को जोड़ने वाले एक महत्वपूर्ण रास्ते के रूप में देखता था। 1950 के दशक में चीन ने यहां एक सड़क बना दी, जिसका भारत ने विरोध किया। दूसरा अरुणाचल प्रदेश। चीन इस क्षेत्र को दक्षिणी तिब्बत मानता था, जबकि भारत इसे अपना हिस्सा मानता है।
1959 के बाद, भारत ने “फॉरवर्ड पॉलिसी” अपनाई, जिसमें विवादित क्षेत्रों में अपनी चौकियां बढ़ानी शुरू कर दीं। चीन ने इसे उकसावे की कार्रवाई माना और दोनों देशों के बीच सैन्य तनाव बढ़ता गया।
20 अक्टूबर 1962 को चीन ने अचानक भारत पर आक्रमण कर दिया। चीनी सेना ने लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश में भारतीय चौकियों पर हमला किया। भारतीय सेना इसके लिए तैयार नहीं थी, और युद्ध के शुरुआती चरण में उसे भारी नुकसान उठाना पड़ा।
20 नवंबर 1962 को चीन ने युद्धविराम की घोषणा की और अपनी सेनाओं को पीछे हटा लिया, लेकिन इस युद्ध ने भारत के आत्मसम्मान और सैन्य शक्ति को गहरी चोट पहुंचाई।
1959 में तिब्बत में जो आग भड़की थी, उसने भारत-चीन संबंधों को हमेशा के लिए बदल दिया। तिब्बत आज भी चीन के अधीन है, लेकिन वहां अलगाववाद की भावना बनी हुई है। दलाई लामा भारत में निर्वासन में रह रहे हैं, और तिब्बती समुदाय भारत में अपनी संस्कृति और पहचान बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहा है।
भारत और चीन के बीच 1962 के युद्ध के बाद भी तनाव बना रहा। 2020 में गलवान घाटी में संघर्ष इसका नवीनतम उदाहरण है। 1959 का तिब्बती विद्रोह एक प्रतीक था। एक ऐसी लड़ाई का, जो न केवल भौगोलिक थी, बल्कि सांस्कृतिक और आध्यात्मिक भी थी। यह लड़ाई खत्म नहीं हुई है, बल्कि आज भी कहीं न कहीं जल रही है।