भारत मे आज हिंदू-मुस्लिम को देख कर दुख होता है। हम इतिहास से सीखते नहीं हैं। यही हमारी एक बड़ी कमज़ोरी है। क्यूंकि, अगर हम एक बार पीछे मूड कर देख लें तो हमें पंडित राम प्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान के उदाहरण मिल जायेंगे जिनकी दोस्ती पूरे भारत के लिए आज भी एक बड़ी मिसाल है।
अशफ़ाक मुस्लिम थे और बिस्मिल हिन्दू, लेकिन दोनों का मकसद एक ही था…भारत को आज़ाद कराना। दोनों का आपसी सम्मान और प्यार उस समय की धार्मिक और सामाजिक विभाजन रेखाओं से बहुत ऊपर था। उन्होंने धर्म की बेड़ियों को तोड़ते हुए साथ संघर्ष किया। बल्कि जन्म से लेकर फांसी चढ़ने तक भी एक साथ ही रहे।
वैसे अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान का जन्म साल 1900 मे आज ही के दिन यानी 22 अक्तुबर को शाहजहांपुर मे हुआ था।
उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर को अगर शहीदों की नगरी भी कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा, क्योंकि यह स्थान अशफाक उल्ला खां, पंडित राम प्रसाद बिस्मिल और ठाकुर रोशन सिंह की जन्मस्थली होने के साथ – साथ काकोरी कांड जैसी महत्वपूर्ण घटना के लिए भी अहम बिंदु साबित हुई है।
अशफ़ाक़ और राम प्रसाद बिस्मिल बचपन से सहपाठी थे। दोनों स्कूल और फिर कॉलेज में पढ़ने के बाद आर्य समाज मंदिर में दिन भर बैठते थे। राम प्रसाद बिस्मिल के पिता इसी मंदिर के पुजारी भी थे। अशफ़ाक़ ने यहीं बैठकर राजा-महाराजाओं की कहानियां खूब पढ़ीं थी। वो हमेशा ऐसी कल्पनाओं में डूबे रहते कि अन्याय करने वालों को कैसे मुंहतोड़ सबक सिखाया जाए। अशफ़ाक और बिस्मिल यहीं पर आज़दी की रुपरेखा तैयार किया करते थे।
अशफ़ाक को लिखने का शौक भी था उन्होंने अपनी कलम के जरिए भी लोगों के दिलों में क्रांति लाने का प्रयास किया। हालांकि, दुर्भाग्यवश उनकी लेखनी के कुछ हिस्सों को ही संजोया जा सका है, ज्यादतर हिस्सा खो चुका है। उन्हीं की एक कविता की कुछ पंक्तियां इस प्रकार है।
कस ली है कमर अब तो, कुछ करके दिखाएंगे,
आज़ाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे।
दिलवाओ हमें फांसी, ऐलान से कहते हैं,
ख़ूं से ही हम शहीदों के, फ़ौज बना देंगे।
9 अगस्त 1925 को जब अशफ़ाक, रामप्रसाद और अन्य साथी क्रांतिकारियों ने काकोरी मे ब्रिटिश ट्रेन के खजाने को लूटा, तो इसका उद्देश्य ये दिखाना था कि अंग्रेज़ी हुकूमत अब असुरक्षित है और उसकी शक्ति को चुनौती दी जा सकती है। इस घटना के बाद, अंग्रेजों ने इन क्रांतिकारियों को पकड़ने के लिए पूरा जोर लगा दिया। रामप्रसाद बिस्मिल और अन्य साथी पकड़े गए, लेकिन अशफ़ाक को छिपने का मौका मिला।
हालांकि, अशफ़ाक के पास मौका था कि वो भाग सकते थे, अपनी जान बचा सकते थे। लेकिन उन्होंने अपने दिल की सुनी। वो मित्र रामप्रसाद बिस्मिल और अन्य साथियों को छोड़कर जाने को तैयार नहीं हुए। अंततः उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें रामप्रसाद बिस्मिल के साथ फांसी की सज़ा सुनाई गई। 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल में, जब अशफ़ाक को फांसी दी जा रही थी, उनके चेहरे पर कोई डर नहीं था। उनकी आखिरी इच्छा भी यही थी कि जहां रामप्रसाद बिस्मिल को जलाया जाए उसी स्थान पर खान को भी दफन किया जाए। हालांकि, उनकी ये इच्छा पूरी नहीं हो पाई। ये उनकी सच्ची दोस्ती और अपने देश के प्रति अटूट निष्ठा का प्रमाण है।