भारतीय इतिहास में ऐसी कई घटित हुई जब अपने ही देश में हिंदू समाज को अपने धर्म और संस्कृति को बचाने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा। अयोध्या की राम जन्मभूमि और रामलला की प्राण प्रतिष्ठा उस संघर्ष की जीत का एक बड़ा प्रतीक बनी। यह अनुष्ठान उन तमाम हिंदुओं के लिए एक भावनात्मक क्षण था, जो सदियों से अयोध्या को लेकर चल रहे संघर्ष का किसी भी रूप में हिस्सा रहे थे। रामलला की प्राण प्रतिष्ठा ने इस संघर्ष को एक सकारात्मक मोड़ दिया और इसे धर्म और संस्कृति के संरक्षण का प्रतीक बना दिया। यह घटना पूरे देश में एकता और सांस्कृतिक गर्व का कारण बनी। जिस समय लोग अपने आराध्य की प्राण प्रतिष्ठा का दृश्य देख रहे थे तब उनके हर रोम में एक शक्ति का संचार हो रहा था और अपने आप अश्रु धारा बह रही थी।
हालांकि, करोड़ों भक्त इस ऐतिहासिक घटना के साक्षी बन पाये उसके पीछे 134 साल से चली आ रही एक संघर्षपूर्ण लड़ाई और 9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट का फैसला सबसे अहम घटना है। इस दिन सुप्रीम कोर्ट ने विवादित स्थल को भगवान श्रीराम की जन्मभूमि माना और 2.77 एकड़ भूमि रामलला के स्वामित्व की मानी।
निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड के दावों को खारिज कर दिया गया। हालांकि यह भी आदेश दिया कि उत्तर प्रदेश की सरकार मुस्लिम पक्ष को वैकल्पिक रूप से मस्जिद बनाने के लिए 5 एकड़ भूमि किसी उपयुक्त स्थान पर उपलब्ध कराए। ऐसा भी देश में पहली बार हुआ था।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला केवल एक कानूनी विवाद का समाधान नहीं था, बल्कि एक पूरे देश की आत्मा और उसके सामाजिक – सांस्कृतिक ताने-बाने को मजबूत करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।
जब सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या भूमि विवाद पर फैसला सुनाया था। तब बेंच में पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई, जस्टिस एस बोबड़े, जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस अब्दुल नजीर, जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ शामिल थे। हालांकि की जैसी उम्मीद थी, कुछ अन्य जजों सहित कई लोगों ने इस फैसले के खिलाफ आवाज़ उठाते हुए आलोचना की।
लेकिन अब पूरे 5 साल बाद सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने पहली बार अयोध्या राम जन्मभूमि विवाद पर दिए गए ऐतिहासिक फैसले पर खुलकर अपनी बात भी रखी और उन आलोचकों को करारा जवाब भी दिया, जिन्होंने फैसले को “धार्मिक पक्षपात” का नाम दिया था।
उन्होंने कहा कि आलोचकों का यह दावा कि यह फैसला एक धर्म विशेष के पक्ष में था, पूरी तरह निराधार है। “हमने सभी पक्षों को समान रूप से सुना, ऐतिहासिक और पुरातात्विक प्रमाणों को परखा, और संविधान के दायरे में रहकर फैसला दिया। यह न्यायिक प्रक्रिया की जीत है।”
उन्होंने आगे कहा कि,”बहुत से आलोचकों ने 1000+ पन्नों का पूरा फैसला नहीं पढ़ा। वो फैसला सबूतों के गहन विश्लेषण पर आधारित था। उन्होंने कहा कि ऐसा दावा करना तथ्यात्मक रूप से गलत होगा की फैसला सबूतों पर आधारित नहीं था।”
दरअसल हाल ही में टाइम्स नेटवर्क इंडिया इकोनॉमिक कॉन्क्लेव में शामिल हुए पूर्व जस्टिस चंद्रचूड़ ने जस्टिस नरीमन की टिप्पणियों को लेकर कहा, ‘मैं फैसले का एक पक्ष था, तो यह मेरे काम का हिस्सा नहीं है कि फैसले का बचाव करूं या आलोचना करूं। जब कोई जज किसी फैसले में पार्टी होता है, तो फैसला सार्वजनिक संपत्ति बन जाता है और उसपर दूसरों को बात करनी होती है।’
उन्होंने कहा, ‘खैर, जस्टिस नरीमन ने फैसले की आलोचना की है, तो मैं यह कहना चाहता हूं कि उनकी आलोचना इस तथ्य का समर्थन करती है कि धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत भारत में जीवित हैं। क्योंकि धर्मनिरपेक्षता का एक अहम सिद्धांत अंतरात्मा की स्वतंत्रता है और जस्टिस नरीमन जो कर रहे हैं, वह अपनी अंतरात्मा के जरिए कर रहे हैं।’
उन्होंने कहा, ‘यह तथ्य कि हमारी समाज में ऐसे लोग हैं, जो इन विचारों को बाहर निकालते हैं। यह याद दिलाता है कि देश में धर्मनिरपेक्षता जीवित है। मैं अपने फैसले का बचाव नहीं करना चाहता, क्योंकि साफ है कि मैं अपने फैसले का बचाव नहीं कर सकता। हमने पांच जजों के जरिए अपनी बात रखी है और हर तर्क को पेश किया है। ऐसे में हर न्यायाधीश फैसले का एक हिस्सा है। हमारे लिए यह निर्णय लेने का एक सामूहिक काम है और हम छपे हुए हर शब्द पर अडिग हैं।’
उन्होंने आगे कहा, ‘यह एक धारणा है और कई और धारणाएं भी होंगी। ऐसे में अदालतें वर्तमान मुद्दों पर फैसला लेती हैं। वे उन मुद्दों पर फैसला लेते हैं, जो देश के सामने हैं। नागरिकों के पास आलोचना करने, चर्चा करने, टिप्पणी करने का अधिकार है। लोकतंत्र में यह सब संवाद की प्रक्रिया का हिस्सा है। यह जस्टिस नरीमन का नजरिया और हर कोई इस नजरिए का सम्मान करता है, लेकिन निश्चित तौर पर यह नजरिया सत्य के एकाधिकार को नहीं दिखाता है। अंतिम शब्द सुप्रीम कोर्ट का होगा।’
दरअसल पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन ने रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद मामले में शीर्ष अदालत के 2019 के निर्णय की आलोचना करते हुए इसे ‘‘न्याय का उपहास’’ बताया, जो पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत के साथ न्याय नहीं करता। न्यायमूर्ति नरीमन ने कहा, ‘मेरा मानना है कि न्याय का सबसे बड़ा उपहास यह है कि इन निर्णयों में पंथनिरपेक्षता को उचित स्थान नहीं दिया गया।’ न्यायमूर्ति नरीमन ने मस्जिद को ढहाये जाने को गैर कानूनी मानने के बावजूद विवादित भूमि प्रदान करने के लिए न्यायालय द्वारा दिए गए तर्क से भी असहमति जताई थी। जस्टिस चंद्रचूड़ ने आगे कहा कि, “इससे पता चलता है कि भारत में अभिव्यक्ति की आजादी है। पूर्व CJI ने स्पष्ट किया कि जस्टिस नरीमन को अपनी राय रखने का पूरा अधिकार है।”