यह कहानी है 17 दिसंबर 1928 की, जब भगत सिंह और राजगुरु ने लाहौर में ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जे.पी. सांडर्स की हत्या की थी। स्वतंत्रता संग्राम में जब क्रांति की ज्वाला पूरे देश में धधक रही थी। तब ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ एक तरफ गांधी जैसे नेता थे जिन्होंने अहिंसा का मार्ग अपनाया, वहीं दूसरी तरफ वे नेता थे जिन्होंने क्रांतिकारी मार्ग चुना, जिसका नेतृत्व भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव और उनके अन्य साथियों ने भी किया। इन नेताओं के समूह को गरम दल के नाम से संबोधित किया जाने लगा।
सांडर्स की हत्या का काल चक्र 30 अक्टूबर 1928 को ही शुरू हो गया था। लाहौर में साइमन कमीशन का विरोध हो रहा था। साइमन कमीशन ब्रिटिश सरकार द्वारा गठित एक समिति थी, जिसमें एक भी भारतीय सदस्य नहीं था। इस कमीशन का विरोध हर जगह हो रहा था। लाला लाजपत राय, जो कि गरम दल के प्रमुख नेता थे, लाहौर में इस विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे थे। डीएसपी सांडर्स के नेतृत्व में पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज कर दिया, और इस दौरान लाला लाजपत राय जी पर भी क्रूरता से लाठियां बरसाईं गई।
लाला जी ने घायल होने के बावजूद कहा,”मेरे शरीर पर पड़ी हर लाठी ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत में कील साबित होगी।” लेकिन यह घटना उनकी मौत का कारण बनी। 17 नवंबर 1928 को लाला लाजपत राय का निधन हो गया। उनकी मौत से भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव और उनके साथी आक्रोशित थे। उन्होंने तय किया कि जेम्स स्कॉट को मारकर इस अन्याय का बदला लिया जाएगा। भगत सिंह ने साफ कहा, “यह केवल बदला नहीं, बल्कि एक संदेश होगा कि भारतीय युवा ब्रिटिश साम्राज्य के अत्याचारों को चुपचाप सहन नहीं करेंगे।”
17 दिसंबर 1928 की सुबह, भगत सिंह, राजगुरु ने सांडर्स को मारने की योजना बनाई। इस योजना का संचालन व उनको पीछे से बैकअप देने का काम चंद्रशेखर के कंधों पर था। उस दिन सांडर्स लाहौर के पुलिस मुख्यालय से निकल रहा था। 4 बजकर 3 मिनट का समय हुआ था कि सांंडर्स अपनी मोटरसाइकिल पर बैठकर बाहर निकला। जैसे ही सांडर्स मुख्यालय से बाहर आया, राजगुरु ने अपनी पिस्तौल से पहली गोली चलाई, जो सांडर्स के सिर में लगी। इसके बाद भगत सिंह ने आगे बढ़कर और गोलियां चलाईं। सांडर्स वहीं गिर पड़ा और उसकी मौके पर ही मौत हो गई। जब उसका गार्ड चानन सिंह उन्हें रोकने दौड़ा, भगत सिंह ने उसे भी गोली मार दी।
सांडर्स की हत्या के बाद भगत सिंह और उनके साथियों को लाहौर से भागना पड़ा। सांडर्स की हत्या के बाद क्रांतिकारी जिस प्रकार से अनोखे ढंग से बाहर निकले, इतिहास का वह पन्ना भी बेहद रोचक है। भगत सिंह एक सरकारी अधिकारी के रूप में ट्रेन के प्रथम श्रेणी डिब्बे में श्रीमती दुर्गा देवी बोहरा व उनके तीन वर्षीय पुत्र के साथ बैठ गए। वहीं क्रांतिकारियों के शार्प सूटर राजगुरु उनके अर्दली बन गए थे। इस तरह भगत सिंह लाहौर से कलकत्ता पहुंचे। चंद्रशेखर आज़ाद साधुु के भेष में एक यात्री दल के साथ मथुरा की ओर निकल गए थे।
यह हत्या केवल प्रतिशोध नहीं थी। भगत सिंह और उनके साथियों का उद्देश्य था अंग्रेजी हुकूमत को यह बताना कि भारतीय युवा अब अत्याचार सहन नहीं करेंगे। उन्होंने अपने कार्यों से यह स्पष्ट कर दिया कि स्वतंत्रता केवल याचना से नहीं, बल्कि संघर्ष से मिलेगी।
सांडर्स हत्या के बाद अंग्रेजी सरकार ने क्रांतिकारियों को पकड़ने के लिए हरसंभव प्रयास किए। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को बाद में असेंबली बम कांड के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें 23 मार्च 1931 को फांसी दे दी गई।
भगत सिंह, राजगुरु और उनके साथियों की इस घटना ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में क्रांति की लहर को और तेज कर दिया। उनकी कुर्बानी ने लाखों युवाओं को प्रेरित किया। आज भी, जब हम सांडर्स हत्या की बात करते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि यह केवल एक व्यक्ति की हत्या नहीं, बल्कि इंकलाब जिंदाबाद के सिंहनाद के साथ एक विचारधारा की शुरुआत थी।