जब भी भारतवर्ष की सबसे महान स्त्रियों का उल्लेख हो, और उनमें अहिल्याबाई होळकर का उल्लेख ना हो ऐसा हो ही नहीं सकता। और हो भी क्यों न? कलियुग में मानो वो पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के संगम के रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुई। उनका जीवन व सांस्कृतिक योगदान उन्हें एक अलग ही स्थान दिलाते हैं। तो आइए एक दृष्टि डालें उनके सम्पूर्ण जीवन पर….
जन्म एवं परिवार
अहिल्याबाई का जन्म 31 मई 1725 को अहमदनगर जिले में हुआ था (जिसे उनके सम्मान में अब अहिल्यानगर कर दिया गया हैं)। पिता मानकोजी शिंदे चौंडी गांव के पाटिल थे, तो माता का नाम सुशीला बाई था। यद्यपि उस समय लड़कियां शिक्षण प्राप्त नहीं कर सकती थीं, पर पिता ने अवश्य उन्हें लिखना पढ़ना सिखाया।
इतिहास पटल पर आगमन
अहिल्याबाई का प्रसिद्धि की ओर पदार्पण उस समय हुआ, जब पेशवा बाजीराव के वफादार साथी व माळवा के शासक मल्हारराव होळकर ने उन्हें एक मंदिर में सेवाएं देते हुए देखा। उनके उत्कृष्ट चरित्र से प्रभावित होकर मल्हारराव ने उनके माता पिता से अहिल्या का हाथ मांगा, और आगे चलकर खंडेराव व अहिल्या का विवाह हुआ। बाद में इस दंपति को दो संताने हुई, पुत्र माळेराव व पुत्री मुक्ताबाई।
संघर्षों का प्रारंभ
राजपरिवार में विवाह के पश्चात भी उनका जीवन अधिक समय के लिए सुगम नहीं रहा। पति अल्पायु में एक युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए, तो ससुर और पुत्र भी एक-एक कर इस दुनिया से चल बसे। ऐसे समय पर अक्सर कोई व्यक्ति पूरी तरह से टूट सकता हैं, लेकिन अहिल्या तो अलग ही मिट्टी की बनी थी। उन्होंने राज्य का कार्यभार अपने हाथों में लिया और स्वयं को पूरी तरह से प्रजा को समर्पित कर दिया।
उत्कृष्ट शासन व उपलब्धियां:
1767 में पूरी शक्ति के साथ वो माळवा की गादी पर विराजमान हुई। 28 वर्षों के उनका शासन हर प्रकार से स्वर्णिम रहा। महेश्वरी साड़ी की बुनाई को बढ़ावा देते हुए, उन्होंने इसका वस्त्र उद्योग स्थापित किया, जिससे बुनकरों को आय का साधन प्राप्त हो सके। यह सुनिश्चित किया गया कि किसानों को ज़रूरी संसाधनों की प्राप्ति हो। उनकी एक और महत्वपूर्ण उपलब्धि, जिसपर कम चर्चा होती हैं, वह हैं गोंड और भील जातियों को मुख्यधारा में लाना। कई मौकों पर, उन्होंने सेना का नेतृत्व भी किया और सच्चे योद्धा की भांति लड़ी। पानीपत के तीसरे युद्ध की भीषण पराजय के पश्चात, मराठों के पुनरुद्धार में भी उनकी अहम भूमिका थी।
धार्मिक व सांस्कृतिक योगदान
जिस कार्य के लिए उन्हें सबसे अधिक जाना जाता हैं और जो उन्हें संपूर्ण देश में सम्मान दिलाता हैं, वह हैं ध्वस्त मन्दिरों का पुनर्निर्माण। पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण उन्होंने कई मंदिरों, धर्मशालाओं, घाटों और कूपों का निर्माण किया। काशी विश्वनाथ मंदिर हो या घृष्णेश्वर और नागनाथ, दशाश्वमेध घाट हो या मणिकर्णिका ये सभी स्थल उन्हीं के कारण आज उत्तम अवस्था में हैं।
मृत्य एवं विरासत
उनका एक लंबा और महत्वपूर्ण घटनाओं से परिपूर्ण जीवन 13 मई 1795 को 70 वर्ष की वृद्ध आयु में समाप्त हुआ। चाहे प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू जी हो या हैदराबाद के निज़ाम, चाहे एनी बेसेंट हो या जॉन मैलकम, हर किसी ने उनके व्यक्तिव और शासन की सराहना की हैं। ऐसी देवी को हमारा शत शत नमन।