भारतीय लोकतंत्र को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है। एक ऐसा लोकतंत्र जहाँ 140 करोड़ से अधिक नागरिक, 28 राज्य, 8 केंद्रशासित प्रदेश, सैकड़ों भाषाएँ और हजारों जातियाँ…सब मिलकर एक गणराज्य या इस देश का निर्माण करते हैं। लेकिन हालिया घटनाक्रमों पर नज़र डालें तो यह विविधता एकता की बजाय खंडन का संकेत देने लगी है। बंगाल की सांप्रदायिक हिंसा, वक्फ कानून पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनका असहमति प्रकट करना, राज्यों का भाषा के आधार पर केंद्र का विरोध करना, सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार के बीच टकराव, और संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता पर बढ़ते सवाल…यह सब एक बड़ा और गंभीर प्रश्न उठाते हैं कि, क्या भारत Institutional Anarchy की ओर बढ़ रहा है?
इस प्रश्न का उत्तर सीधा नहीं हो सकता, लेकिन परिस्थितियाँ इशारा ज़रूर करती हैं। भारत की संस्थाएँ अब वैसी मज़बूत नहीं रहीं जैसी संविधान निर्माताओं ने शायद कल्पना की रही होगी। राजनीतिक ध्रुवीकरण, धार्मिक विभाजन, भाषा-आधारित टकराव, राज्यों और केंद्र के बीच बढ़ता अविश्वास, न्यायपालिका और कार्यपालिका की खींचतान ये सब एक ऐसे वातावरण का निर्माण कर रहे हैं जहाँ संवैधानिक नैतिकता और इंसानियत ध्वस्त होती नजर आ रही है।
भारत जैसी विविधताओं और जरूरत से ज्यादा अभिव्यक्ति की आज़ादी वाला देश है। यहां अराजकता का अर्थ केवल सड़कों पर अराजकता नहीं है संस्थाओं के स्तर पर, विधायी प्रक्रिया में, और सामाजिक ताने-बाने में जब अव्यवस्था घर करने लगे, तो वह धीरे-धीरे एक Institutional Anarchy का रूप ले लेती है।
अराजकता कोई एक दिन में नहीं आती, यह धीरे-धीरे दरवाज़े पर दस्तक देती है और एक जब वह घर के दरवाज़े तक आ जाती है तो फिर आपका दरवाज़ा बंद भी हो उसे फर्क़ नहीं पड़ता वह सिर्फ आपका दरवाज़ा ही नहीं बल्कि दीवारें, घर, सामाजिक ढांचा, आपके सभी विश्वास और आपकी अंतरात्मा को भी तोड़ देती है।
वास्तविक दुनिया में जब हम “अराजकता” कहते हैं, तो हमारा मतलब होता है…कानून का न होना। सरकार का नियंत्रण खत्म होना, न्याय व्यवस्था का टूटना, भीड़ का शासन शुरू होना। मतलब जहाँ कानून तो हैं, पर कोई मानता नहीं। जहाँ नेता या संस्थाएं खुद नियम तोड़ते हैं, और कोई रोकने वाला नहीं है।
अराजकता का मतलब सिर्फ दंगे-फसाद नहीं है, बल्कि व्यवस्था का धीरे-धीरे टूटना है। जब सिस्टम काम न करे, जब न्याय न मिले, और जब संस्थाओं पर विश्वास टूट जाए, तो अराजकता शुरू होती है। यह एक धीमी आग है, जो समाज को अंदर से जलाती है।
वहीं संस्थागत अराजकता तब होती है जब…संविधानिक संस्थाएं जैसे सुप्रीम कोर्ट, संसद, चुनाव आयोग, मीडिया और हर देशवासी अपनी भूमिका ठीक से निभाना बंद कर दें। राज्य सरकारें और केंद्र सरकार आपस में लड़ने लगें, और जनता के हित की जगह राजनीति में उलझ जाएं। न्यायपालिका और कार्यपालिका एक-दूसरे पर भरोसा न करें। मीडिया सच दिखाने की बजाय सबसे आगे रहने और मात्र वर्चुअल नंबरों की होड़ में बेतुकी और बिना काम की ख़बरें चलाये तो जनता का इन संस्थाओं पर से भरोसा खत्म हो जाता है और होती है Anarchy।
शायद अब तक आपके दिमाग में वो सारी घटनाओं की झलकियां दौड़ चुकी होगीं जो बीते कुछ समय में देशभर में हुईं अगर नहीं तो हम बताते हैं।
बंगाल और बांग्लादेश में अन्तर कर पाना मुश्किल!
बंगाल और बांग्लादेश में आज अन्तर कर पाना मुश्किल है ख़ासकर हिन्दू, सरकारी और देश विरोधी घटनाओं के मामले में। कोई हिन्दू त्यौहार आए वहाँ एक जरूरत से ज्यादा विशेष धार्मिक बल की तरफ से अराजक घटना होती हैं। पिछली रामनवमी में भी ऐसा ही हुआ। इसके बाद पूरे संवैधानिक तरीके से वक्फ कानून बनाया गया लेकिन विरोध में जनता ने अराजकता फैलाई और हर बार की तरह मुख्यमंत्री ने सारा आरोप केंद्र पर मढ़ दिया। ममता बस वहीं नहीं रुकी। एक राज्य की मुख्यमंत्री का खुले मंच से कहना कि वह अपने राज्य में केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए वक्फ कानून को लागू नहीं करेंगी बेहद निंदा योग्य बयान है। उनका राज्य?? अच्छा ये शायद उनके पूर्वजो की जागीर होगी! पूरा देश अब तक शायद भ्रम में था कि बंगाल भारत का हिस्सा है। उनका ये बयान दिखाता है कि उन्हें संविधान, संसदीय कार्यप्रणाली और देश की राष्ट्रपति पर कितना विश्वास और सम्मान है।
यह घटना केवल एक कानून का विरोध नहीं, बल्कि संघीय ढांचे की भावना को चुनौती है। जब राज्य अपने स्तर पर संसद द्वारा पारित कानून को नकारते हैं, तो यह केवल संवैधानिक संकट नहीं बल्कि legal anarchy की दिशा में पहला कदम होता है।
भाषाओं की लड़ाई
कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों में हिंदी के खिलाफ आंदोलन तेज हो रहे हैं। नवंबर 2024 में बेंगलुरु मेट्रो में हिंदी संकेतकों को लेकर विरोध इतना बढ़ गया कि बेंगलुरु मेट्रो रेल कॉरपोरेशन लिमिटेड (BMRCL) को हिंदी संकेत हटाने पड़े।
तमिलनाडु में हिंदी विरोध दशकों पुराना है, लेकिन अब वह “एक राष्ट्र, एक भाषा” की नीति के विरोध के रूप में उभर रहा है। महाराष्ट्र में भी मराठी बनाम हिंदी विवाद ने राजनीतिक रंग ले लिया है। यह बताता है कि भाषा अब केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि राजनीतिक हथियार बन गई है।
भाषा को लेकर राज्यों का केंद्र से यह विरोध देश को एक संघ की बजाय संघर्ष की ओर ले जाता है। जब भाषाएँ अस्मिता और पहचान का प्रश्न बन जाती हैं, तो वे विभाजन की नींव रख सकती हैं।
राज्य बनाम केंद्र में तनाव
कई राज्य ख़ासतौर पर दक्षिणी राज्य और केंद्र के बीच अधिकारों की लड़ाई किसी से छुपी नहीं। इस लड़ाई में लगातार लोकतांत्रिक स्तम्भों की अवहेलना हो रही है।
न्यायपालिका बनाम कार्यपालिका
वक्फ और कई मसलों पर आज न्यायपालिका और कार्यपालिका आमने सामने हैं। और किसी भी लोकतांत्रिक देश में जब न्यायपालिका और कार्यपालिका आमने-सामने हो जायें तो आम नागरिकों का न्याय में विश्वास कमजोर होता है। न्याय यदि समय पर और स्वतंत्र रूप से न मिले, तो कानून का राज खोखला हो जाता है, और यही अराजकता की नींव बनती है।
भीड़तंत्र और सामाजिक खंडन
भीड़ द्वारा पीट-पीटकर हत्या, धर्म के नाम पर हिंसा, विश्वविद्यालयों में छात्रों पर पुलिस कार्रवाई, जातीय हिंसा…ये सब दर्शाते हैं कि राज्य व्यवस्था कई बार या तो विफल हो जाती है या जानबूझकर मूकदर्शक बनी रहती है। हर बार संवैधानिक तरीके से बनाए गए कानून के खिलाफ भीड़ सड़कों पर उतर आयेगी तो क्या होगा? जब न्याय अदालत की बजाय भीड़ देने लगे, तो अराजकता केवल सम्भावना नहीं, हकीकत बन जाती है।
यदि इन चेतावनियों को समय रहते न समझा गया, और संस्थाओं को राजनीतिक हथियार की बजाय लोकतांत्रिक सुरक्षा कवच के रूप में पुनर्स्थापित नहीं किया गया, तो आने वाला समय भारत के लिए एक अस्थिर, बँटा हुआ और अशांत युग ला सकता है।