पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है। पत्रकारों की सर्वश्रेष्ट जिम्मेदारी है सत्य की पड़ताल कर उसे सामने लाना। मीडिया की हर योजना पर पैनी नजर होती है। सरकार भी इनसे थर थर कांपती है।
ये सारी बातें सौ प्रतिशत सत्य होती, अगर ये बात की जा रही होती पुराने समय की, जब पत्रकारिता से अधिक ताकतवर पेशा कोई और ना था। जब एक कलम के जोर पर सरकारों की नींद उड़ जाया करती थी। बेबाक रिपोर्टिंग, सीधी बात जिसपर तंज़ या कटाक्ष का थोड़ा छौंक लगा हो, जटिल मुद्दों पर बहस और नीयत मे सच्चाई, ये चार बातें थीं जिनके कारण पत्रकारिता ने वो मुकाम हासिल किया था।
जी हाँ, हम यहाँ “था” शब्द का प्रयोग एक कारण से कर रहे हैं। कारण यह है, कि आज कल मीडिया की हालत देखकर लगता है कि उसमे अब वो बात नहीं रही। डिजिटल की बात करें या फिर प्रिन्ट, हर तरफ हालत जरा खस्ता सी मालूम होती है। और ऐसा होने का कारण कोई और नहीं, बल्कि खुद मीडिया ही है।
बीते वर्षों मे आखिर ऐसा क्या हो गया जो पत्रकारिता की हालत बद से बदतर हो गई। कारण है मीडिया का खुद न्यूज को देखने का नजरिया। आज बाकी सारी चीजों की तरह न्यूज भी एक कंटेन्ट बनकर रह गया है। जिस तरह सोशल मीडिया से “ट्रेंड” शब्द को जो बढ़ावा मिला है, उसने अपना असर न्यूज पर भी डाला। इसका परिणाम ये हुआ कि जहां न्यूज का काम था सच को खंगालना, वहाँ न्यूज कंटेन्ट को खँगालता हुआ ही नजर आता है। कोरोना काल तो आपको याद ही होगा। जब देश मे इस महामारी ने हाहाकार मचाया था और मीडिया की यह सर्वप्रथम जिम्मेदारी थी की वो इस बीच लोगों को सूचित रखे, सचेत रखे, उस वक्त हमारे मीडिया को बॉलीवुड के ड्रग स्कैन्डल और रिया चक्रवरती से ही फुरसत नहीं थी। आलम ये हुआ इस चीज को देर ही सही, पर लोगों ने भांप लिया की कुछ तो कारण है कि सही मुद्दों पर मीडिया उतनी ज़ोरों शोरों से चर्चा नहीं करता।
नतीजा? मीडिया पर मीम्स बनने लगे, चुटकुले और रोस्ट वीडियोज़ शेयर होने लगे, गोदी मीडिया जैसे नाम इसे दिए जाने लगे और अंततः जनता मीडिया से बद सलूखी पर उतर आई। न्यूज चैनल्स पर पाकिस्तान, श्री लंका, रूस-यूक्रेन युद्ध और मुग़लों के इतिहास पर घंटों बिता दिए जाते हैं पर देश के एजुकेशन या प्रदूषण जैसे गंभीर मामलों को यूही छोड़ दिया जाता है। औरतों की सुरक्षा पर सवाल भी किसी भीषण दुर्घटना के घटने के बाद ही उठाया जाता है, और कभी कभी तो उसके बाद भी हफ्तों लग जाते हैं इन बातों पर कोई कार्यवाही होने मे। आए दिन न्यूज डिबेट्स पर हुए गाली गलौज और हाथापाई के वीडियोज़ सोशल मीडिया पर वाइरल हो जाया करते हैं।
हम ये नहीं कह रहे कि सारे पत्रकार गलत काम कर रहे हैं। कुछ हैं, जो पूरी मेहनत और लगन के साथ सच को आपके सामने लाने की कोशिश करते है, गलत कामों पर सवाल भी दागते हैं, और फिर उन्हे इसका परिणाम भी झेलना पड़ता है, देश द्रोह के केस, रेड, धमकी या कभी कभी तो हाथापाई और मॉब लिन्चिंग के रूप मे भी।
लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के साथ ये खिलवाड़ देखकर हो सकता है किसी को हंसी आती हो, पर हमें तो अत्यंत दुख और क्रोध आता है। इसे बहुत गंभीरता से देखा जाना चाहिए वरना कहीं ऐसा ना हो की भविष्य मे हमारे मीडिया रूपी कान और आँखें दोनों ही हमेशा के लिए बंद कर दिए जाएं, और अंधी और बहरी जनता सच्चाई की मोहताज बनकर रह जाए।