बीते कुछ समय में एक ऐसा शब्द है, जिसने हम सबके बीच अपनी पहचान और कहीं कहीं एंटरटेनमेंट, खासकर फिल्मों की दुनिया में अपने डर का वर्चस्व पूरी तरह से कायम कर रखा है। शब्द है “बॉयकॉट”। आलम ये हो चला है कि फिल्में बनती हैं और बॉयकॉट के काले बादल उस पर मंडराना चालू कर देते हैं। चाहे मुद्दा धर्म का हो, संप्रदाय का हो, घटना का हो यहां तक की रंग और किसी एक शब्द का ही क्यों न हो, सबका आज एक ही परिणाम है, बॉयकॉट। बीते साल ऐसी कई फिल्में बनी जो इस बॉयकॉट कल्चर के बुरी तरह हत्थे चढ़ गई, लाल सिंह चड्डा तो याद ही होगी आपको। उसके बाद तो जैसे बॉयकॉट स्लोगनों की तो झड़ी सी लग गई। ब्रह्मास्त्र, विक्रम वेधा, पठान, ओह माय गॉड 2 और अब जवान यह उन पांच फिल्मों के नाम हैं, जिनके बॉयकॉट कैंपेन काफी जोरों शोरों से चलाए गए। मीडिया पर भाषण हो या सोशल मीडिया पर हैशटैग, हर माध्यम से बॉयकॉट गैंग अपने काम में लगी हुई नजर आई है।
क्यों होती हैं फिल्में बॉयकॉट?
फिल्मों के बॉयकॉट हो जाने के पीछे का जो सबसे बड़ी वजह सामने आई है, वो है फिल्म या उनमें काम करने वाले कलाकारों के द्वारा देश की जनता की भावनाओं को ठेस पहुंचाना। ये बात एक हद तक जायज़ भी है, जब तक बात भावनाओं के अपमान तक हो। पर अगर इसे सिर्फ एक प्रोपगेंडा के तहत इस्तेमाल किया जाने लगे, तो क्या हो। और इसमें कोई दोराय नहीं कि ऐसा हो रहा है। अब तो ये हाल है की लगभग हर फिल्म में ऐसा कोई न कोई ऐब ढूंढ ही लिया जाता है, जिससे मुद्दा बनाकर फिल्मों को बॉयकॉट करने की मुहिम छेड़ दी जाती है।
क्या हो रहा है इसका कोई असर?
अभी तक इसका कोई खास असर देखने को नहीं मिला है। फिल्में अभी भी बन रही हैं और सुपरहिट भी हो रही हैं। पहले पठान और अब जवान की रिकॉर्ड तोड़ कमाई देखकर हर फिल्म निर्माता और निर्देशक जो इस बॉयकॉट नामक आपदा से डरता है, को राहत तो मिली है। लोगों के बीच से इसका डर थोड़ा कम हुआ है। और यह बात एक तरह से अच्छी भी है, पुराने लोगों के लिए भी और नए लोगों के प्रोत्साहन के लिए भी। भारत आज विश्व स्तर पर ख्याति प्राप्त कर रहा है, ऐसे में बॉयकॉट जैसी चीजें अपने आप में बेइमानी सी लगती हैं।