मध्य प्रदेश में 2018 के चुनावों में भाजपा ने सत्ता गवां दी थी। दिलचस्प बात यह थी कि कई जगहों पर नोटा ने भाजपा – कांग्रेस का खेल बिगाड़ दिया था। उस विधानसभा चुनाव में नोटा 13 सीटों पर उम्मीदवारों की जीत को हार में बदलने में अहम वजह बना था। इस 13 सीटों पर हार-जीत के अंतर से ज्यादा मतदाताओं ने नोटा पर बटन दबाया था। इससे बीजेपी-कांग्रेस के उम्मीदवारों के हाथ से जीत निकल गई। नोटा से सबसे ज्यादा नुकसान बीजेपी को हुआ था। बीजेपी 10 सीटों पर नोटा से हार गई थी। तीन राज्यों मे फिलहाल विधानसभा चुनावों की वोटिंग चल रही है। इसीलिये NOTA यानी कि ‘उपरोक्त में से कोई नहीं’ वाली बटन के इतिहास और इसके महत्व को समझना भी जरूरी है।
भारत में चुनावी प्रक्रिया के हिस्से के रूप में NOTA (उपरोक्त में से कोई नहीं) का प्रावधान है, जो मतदाताओं को चुनाव लड़ने वाले किसी भी उम्मीदवार को अपना वोट देने से इनकार करके विरोध करने की अनुमति देता है। नोटा का उपयोग पहली बार 2013 के पांच राज्यों – छत्तीसगढ़, मिजोरम, राजस्थान, दिल्ली और मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनावों में और बाद में 2014 के आम चुनावों में किया गया था। PUCL बनाम भारत संघ मामले में 2013 के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद इसे चुनावी प्रक्रिया में शामिल किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने तर्क दिया था कि NOTA विकल्प मतदाताओं को राजनीतिक दलों और उनके द्वारा खड़े किए गए उम्मीदवारों के प्रति अपना असंतोष व्यक्त करने की अनुमति देगा और इस प्रकार राजनीतिक व्यवस्था को साफ करने में मदद मिलेगी।
नोटा वोट कैसे डाला जाता है?
ईवीएम में उम्मीदवारों की सूची के अंत में नोटा का विकल्प होता है। इससे पहले, नकारात्मक मतदान करने के लिए मतदाता को मतदान केंद्र पर अधिकारी को सूचित करना होता था। नोटा वोट के लिए अधिकारी की भागीदारी की आवश्यकता नहीं होती है।
नोटा से क्या फर्क पड़ता है?
चुनाव आयोग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि नोटा विकल्प का चुनाव के नतीजों पर कोई असर नहीं पड़ेगा। EVM पर नोटा विकल्प का कोई चुनावी मूल्य नहीं है। भले ही डाले गए वोटों की अधिकतम संख्या नोटा के लिए हो, शेष वोटों में से सबसे अधिक वोट पाने वाले उम्मीदवार को विजेता घोषित किया जाएगा।”
यदि ‘कोई चुनावी मूल्य नहीं’ है तो नोटा क्यों है?
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले मे कहा कि नकारात्मक वोटिंग उन लोगों को भी प्रोत्साहित करेगी जो किसी भी उम्मीदवार से संतुष्ट नहीं हैं और अपनी राय व्यक्त करने के लिए आगे आएंगे और सभी प्रतियोगियों को खारिज कर देंगे। “नकारात्मक मतदान से चुनावों में प्रणालीगत बदलाव आएगा और राजनीतिक दल साफ-सुथरे उम्मीदवारों को पेश करने के लिए मजबूर हो जाएंगे। यदि वोट देने का अधिकार एक वैधानिक अधिकार है, तो किसी उम्मीदवार को अस्वीकार करने का अधिकार संविधान के तहत भाषण और अभिव्यक्ति का मौलिक अधिकार है। हालांकि SC का ये बयान पूरी तरह से संतुष्ट करने योग्य नहीं है। और NOTA को लेकर नियमों मे संशोधन की अत्याधिक जरूरत है।
NOTA राइट टू रिजेक्ट नहीं!
अगर आपको भी लगता है कि अपने देश में नोटा को अधिक वोट मिलने पर चुनाव रद्द हो जायेगा तो आप गलत हैं। भारत में नोटा को राइट टू रिजेक्ट का अधिकार प्राप्त नहीं हैं। जिसका मतलब यह हुआ कि अगर मान लीजिए नोटा को 99 वोट मिले और किसी प्रत्याशी को 1 वोट भी मिला तो 1 वोट वाला प्रत्याशी विजयी माना जायेगा। साल 2013 में नोटा के लागू होने के बाद में चुनाव आयोग ने स्पष्ट किया कि नोटा के मत केवल गिने जाएंगे पर इन्हे रद्द मतों की श्रेणी में रखा जाएगा। इस प्रकार साफ था कि नोटा का चुनाव के नतीजों पर कोई असर नहीं पड़ेगा।