बीते दो दिन से एक तस्वीर की हर जगह चर्चा हो रही है। ये एक ऐसी तस्वीर है जिसमें लोकतंत्र के दो स्तंभ एक साथ नज़र आ रहे हैं। पीएम मोदी ने हाल ही में गणेश पूजा में जस्टिस चंद्रचूड़ के साथ अपनी तस्वीर पोस्ट की। लेकिन इस तस्वीर के साथ ही प्रधानमंत्री के मुख्य न्यायाधीश के घर जाने और निजी समारोह में शामिल होने से विवाद शुरू हो गया। भारत के संविधान में कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के अलग अलग होने और उनकी स्वतंत्रता को लेकर भी लोगों ने सवाल उठाए तो कुछ का मानना है कि फिर न्यायपालिका की निष्पक्षता मे संदेह भी बढ़ेगा। लेकिन सवाल तो ये भी उठता है कि क्या लोकतंत्र के दो स्तंभ को आपस में दुश्मनी रखनी चाहिए, हाथ नहीं मिलाना चाहिए? सवाल कई हैं जिनका सीधा सरल जवाब हो ही नहीं सकता! हो सकती है तो बस बहस! बहस से याद आया कि ये कोई पहली बार नहीं जब देश और न्यायलय के प्रधान को मिलने से बहस खड़ी हुई हो। इंदिरा से लेकर मनमोहन और अब मोदी…एक मुलाकात या जुड़ाव कैसे बहस का मुद्दा बन गए आइए समझते हैं।
18 सितंबर 2009 को तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नई दिल्ली स्थित आवास पर इफ्तार पार्टी का आयोजन किया था। इस आयोजन में तत्कालीन सीजेआई केजी बालकृष्ण ने भी हिस्सा लिया था।प्रकाशित तस्वीरों में सोनिया गांधी, पी चिदंबरम, शीला दीक्षित समेत कई नेता नजर आ रहे थे। एक तस्वीर की और चर्चा मे रही जिसमें मनमोहन सिंह और सीजेआई केजी बालकृष्ण बात करते नजर आ रहे हैं।
ये तो बात हो गई तस्वीरों की लेकिन तस्वीरों से इतर एक दफ़ा ऐसा भी हुआ जब एक 1200 शब्दों के पत्र की वजह भी सियासत मे भूचाल आ गया था। ये पत्र सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस पी. एन. भगवती ने इंदिरा गांधी को लिखा था। इस पत्र मे उन्होने लिखा था कि…”क्या मैं चुनावों में आपकी शानदार जीत और भारत के प्रधानमंत्री के रूप में आपकी विजयी वापसी पर हार्दिक बधाई दे सकता हूं? यह एक बेहद उल्लेखनीय उपलब्धि है जिस पर आप, आपके मित्र और शुभचिंतक जायज रूप से गर्व कर सकते हैं। भारत जैसे देश का प्रधानमंत्री बनना बड़े सम्मान की बात है।”
इस चिट्ठी के आते ही न्यायपालिका और सियासत से जुड़े लोगों मे जमकर हंगामा शुरू हो गया। उस वक्त इस पत्र को लेकर सुप्रीम कोर्ट के ज्यादातर एडवोकेट नाराज हो गए थे। 2 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन की बैठक बुलाई गई। उस वक्त यह तय हुआ कि इसे जितना अधिक उछाला जाएगा, न्यायपालिका को उतना ही अधिक नुकसान होगा। इसलिए मामले को दबा दिया गया। लेकिन न्यायपालिका में लोगों का विश्वास हिल जाने वाला सवाल वैसा ही रह गया।
प्रधानमंत्री का मुख्य न्यायाधीश से मिलना भारतीय संदर्भ में सही या गलत मानना कई कारकों पर निर्भर करता है। संवैधानिक दृष्टि से देखें तो कार्यपालिका (प्रधानमंत्री) और न्यायपालिका (मुख्य न्यायाधीश) के बीच की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है। दोनों के बीच संतुलन बनाए रखना लोकतंत्र के लिए जरूरी है।
हालांकि, अगर यह मुलाकात औपचारिक हो या किसी विशेष कारण से हो जैसे न्यायिक सुधारों पर चर्चा, न्यायपालिका की कार्यक्षमता बढ़ाने या न्यायिक प्रणाली के समक्ष चुनौतियों पर विचार करना, तो इसमें कोई असंगति नहीं होनी चाहिए। लेकिन, अगर यह मुलाकात न्यायपालिका के कामकाज में हस्तक्षेप या किसी व्यक्तिगत लाभ के लिए हो, तो इसे गलत माना जा सकता है।
लोकतंत्र की मजबूती के लिए जरूरी है कि तीनों अंग—कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका—अपनी-अपनी सीमाओं में रहकर काम करें और एक-दूसरे के अधिकारों का सम्मान करें।
प्रधानमंत्री का भारत के मुख्य न्यायाधीश से मिलना संवैधानिक दृष्टिकोण से गलत नहीं है, लेकिन, इस तरह की मुलाकातों में पारदर्शिता और सार्वजनिक हित का ध्यान रखना आवश्यक है, ताकि किसी भी तरह के विवाद या संदेह से बचा जा सके। बाकी कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना!