10 अक्टूबर, 1946…तत्कालीन पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) के दक्षिण-पूर्वी भाग ‘नोआखली’ में बंगाली हिंदू देवी लक्ष्मी की पूजा की तैयारी कर रहे थे। लेकिन इससे पहले कि अनुष्ठान शुरू हो पाते, इस्लामवादियों से भरी एक के बाद एक लहरें हिंदुओं पर टूट पड़ीं, रक्षाहीन पुरुषों का कत्लेआम किया, महिलाओं को बंधक बनाकर उनके साथ बलात्कार किया गया, तथा हजारों लोगों को जबरन इस्लाम में परिवर्तित कर दिया गया। 78 साल पहले आज ही के दिन जो घटनाएं घटीं, वे किसी नरसंहार से कम नहीं थीं। हालांकि इतिहास की किताबों और ‘नोआखली’ की भयावह घटनाओं के लगभग सभी विवरणों में हिंदुओं के व्यवस्थित सफाए और जबरन धर्मांतरण को ‘दंगे’ के रूप में बदल दिया गया है।
सन् 1947 मे भारत आजाद हुआ लेकिन बंटवारे के दंश मे बहुत खून बहा। कॉंग्रेस की लचर नीतियों के कारण इस आज़ादी के साथ-साथ देशवासियों को कई घाव मिले। एक तरफ गाँधी अहिंसा पर भाषण दे रहे थे दूसरी तरफ़ इस्लामी कट्टरता में हिन्दुओं की सामुहिक हत्या की जा रही थी। 1946 का साल भारतीय इतिहास में एक अंधेरे अध्याय के रूप में दर्ज है, खासकर नोआखाली में हुई हिंसा के कारण। यह घटना उस समय की है जब भारत स्वतंत्रता की ओर बढ़ रहा था, लेकिन सांप्रदायिक तनाव अपने चरम पर था। यह वही समय था जब देश का विभाजन नजदीक था, और धार्मिक आधार पर हिंसा ने अपना सिर उठाना शुरू कर दिया था। चटगाँव तब बंगाल का हिस्सा हुआ करता था, जो उसके बाद पूर्वी पाकिस्तान और फिर बांग्लादेश का हिस्सा बना। वहीं स्थित है नोआखली, जहाँ की हिन्दू जनसंख्या ने अक्टूबर-नवंबर 1946 में बड़े नरसंहार का सामना किया।
नोआखाली, जो उस समय पूर्वी बंगाल का एक हिस्सा था, 1946 में एक सामुदायिक दंगे का गवाह बना। मुसलमान और हिंदू समुदायों के बीच बढ़ते तनाव ने स्थिति को विकराल बना दिया। मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान बनाने की आखिरी हद तक पहुंचकर डायरेक्ट एक्शन की घोषणा की थी।उसी के आधार पर नोआखाली के एक स्थानीय मुस्लिम नेता के भाषण ने मुसलमानों में गुस्सा पैदा किया, जिसके परिणामस्वरूप हिंसा भड़क उठी। इससे पहले कि कोई इसे रोक सके, पूरे क्षेत्र में आगजनी, लूटपाट और हत्या की घटनाएँ शुरू हो गईं।
हिंदू समुदाय के लोग भयभीत हो गए। गांवों से भागकर लोग सुरक्षित स्थलों की ओर दौड़ पड़े। कई परिवार अपने प्रियजनों को खो चुके थे। लोगों की आँखों में ऐसा दर्द था, जिसे शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता। सिर्फ हिंदू ही नहीं, बल्कि कई मुसलमान भी इस हिंसा के शिकार हुए। उन्हें भी अपने समुदाय के भीतर से प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। कई ने अपने सगे-संबंधियों को खोया और समाज के विघटन का दर्द सहा। ऐसे समय में, जब मानवता को एकजुट होना चाहिए था, द्वेष और नफरत ने सब कुछ बर्बाद कर दिया।
हिन्दुओं को जबरन मुस्लिम बनाया जा रहा था। हिन्दुओं की घरों एवं संपत्तियों को योजनाबद्ध तरीके से तबाह किया गया। वो पलायन करने और राहत शिविरों में रहने को मजबूर हुए। अपनी पुस्तक ‘भारत और पाकिस्तान का उदय’ में यास्मीन खान ने लिखा है कि कलमा पढ़ने के साथ धर्मांतरण शुरू किया जाता था और फिर जबरन गोमांस खिलाया जाता था। फिर महिलाओं के साथ बलात्कार किया जाता था। मुस्लिमों में ये बात बैठ गई थी कि सभी गैर-मुस्लिमों का धर्मांतरण करा देना है।
इस दौरान किसी भी कॉंग्रेस नेता ने वहाँ का दौरा नहीं किया। गाँधी जी भी ‘पीड़ित मुस्लिमों’ का दुःख जानने बिहार चले गए। न हिंदुओं में वो आत्मविश्वास भर पाए, न मुस्लिमों को समझा पाए।1946 में 250 सदस्यीय बंगाल विधानसभा में डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ‘हिन्दू महासभा’ के एकमात्र सदस्य थे जिन्होंने हिन्दुओं की पीड़ा के लिए आवाज़ उठाने में जान लगा दी।
हिंसा का यह सिलसिला सिर्फ कुछ दिनों तक नहीं चला, बल्कि कई हफ्तों तक चला। सरकारी तंत्र ने भी काफी देर से कार्रवाई की। जब तक सहायता पहुँची, तब तक बहुत कुछ खो चुका था। बच्चे, बुजुर्ग, महिलाएँ—सभी इस बर्बरता का शिकार बने। एक ओर, जहाँ लोग अपने घरों को छोड़कर भाग रहे थे, वहीं दूसरी ओर, उनके घर जल रहे थे और उनकी संपत्ति लुटाई जा रही थी।
इस घटना ने भारतीय समाज के ताने-बाने को झकझोर कर रख दिया। परिवारों में गहरा सदमा और कड़वाहट पैदा हुई। कई वर्षों तक, लोगों ने अपने मन में भरे दर्द और घृणा को समेटे रखा। नोआखाली की यह त्रासदी एक चेतावनी बन गई कि किस तरह नफरत और विभाजन समाज को तहस-नहस कर सकते हैं।
आज की तारीख हिन्दूओं के लिए एक रक्तरंजित सामूहिक स्मृति है। हालांकि तब से अब तक कुछ नहीं बदला है। बांग्लादेश मे कुछ समय से लगातार दंगे होते रहे हैं। इन दंगों मे भी हिन्दुओं ने हिन्दू होने की कीमत चुकाई है। मंदिरों को ख़ास तौर से निशाना बनाते हुए कई हिन्दुओं की हत्या की गई है।