भारतीय सिनेमा का शुरुआती दौर काफी मुश्किलों भरा था। देश गुलामी से जूझ रहा था और इसी बीच भारतीय सिनेमा भी धीरे धीरे ही किसी नवजात बच्चे की तरह अपने पैरों पर बार बार खड़े होने की कोशिश कर रहा था। खैर, वक्त ने साथ दिया और 1913 में भारत की पहली मूक फिल्म बनी जिसका नाम था ” राजा हरिश्चंद्र” जो कि भारतीय सिनेमा के पितामह कहे जाने वाले दादा साहेब फाल्के की प्रस्तुति थी। इसके लगभग दो दशकों बाद 1931 में पहली बार भारतीय सिनेमा को उसकी आवाज़ मिली फ़िल्म आलम आरा के रूप में। पर अभी भी भारतीय सिनेमा अपने समय से पीछे था, क्योंकि वो अभी तक अपनी फिल्मों को कलर्ड फॉर्मेट में नही उतार पाया था। यह सारी उपलब्धि अभी ब्लैक एंड व्हाइट में ही दिख रही थी।
जद्दोजहद जारी रही और आखिरकार 1937 में भारतीय सिनेमा में रंग भरे जब भारत की पहली कलर्ड फ़िल्म “किसान कन्या” रिलीज़ हुई। हालांकि इसके पहले भी एक फिल्म कलर्ड फॉर्मेट में बनी थी, जिसका नाम था सैरंधरी, पर इसकी निम्न क्वालिटी के कारण इसकी रिलीज़ सफल नहीं हो पाई।
किसान कन्या भले ही भारतीय सिनेमा के इतिहास में कलर्ड फॉर्मेट में रिलीज़ होने वाली पहली फिल्म बन गई, इसकी कलर क्वालिटी के कारण इसे भी वो मुकाम वो शोहरत न मिल सकी, और इस कारण भारत को अच्छी क्वालिटी का कलर्ड सिनेमा देखने के लिए और दो दशकों का इंतज़ार करना पड़ा, भारत की पहली technicolour फॉर्मेट में बनी, मेहबूब ख़ान द्वारा निर्देशित दिलीप कुमार की “आन” फिल्म ने बेजोड़ सफलता हासिल की। वैसे इस बात पर भी उस समय की सोहराब मोदी की फिल्म “झांसी की रानी” को भी इस कैटेगरी में रखा जाता है, मगर उस फिल्म को “आन” जितनी सफलता नहीं मिली। बहुचर्चित होने के कारण यह बाज़ी “आन” फिल्म के हक़ में चली गई और इस तरह भारतीय सिनेमा ने ब्लैक एंड व्हाइट की दुनिया से कलर और फिर टेक्नीकलर की दुनिया में कदम रखा।