पश्चिम बंगाल की राजनीति हमेशा से सियासी नाटकों और अप्रत्याशित मोड़ों के लिए जानी जाती रही है। लेकिन इस बार नाटक मंच पर नहीं, पर्दे के पीछे हो रहा है…तृणमूल कांग्रेस के भीतर।
जहाँ बाहर से पार्टी एकजुट और अनुशासित दिखाई देती है, वहीं भीतर दरारें गहराती जा रही हैं। सौगत रॉय बनाम कल्याण बनर्जी की लड़ाई, महुआ मोइत्रा पर गुटबाजी के आरोप, और लोकसभा चुनाव की आहट, इन सबने एक ऐसा राजनीतिक कोलाहल रच दिया है, जो आने वाले समय में बंगाल की राजनीति को झकझोर सकता है।
टीएमसी सांसद और अनुभवी नेता सौगत रॉय ने हाल ही में जो बयान दिया, वह कोई साधारण असहमति नहीं थी। उन्होंने लोकसभा में पार्टी के मुख्य सचेतक कल्याण बनर्जी को पद से हटाने की सार्वजनिक मांग कर डाली। वजह? बनर्जी द्वारा महुआ मोइत्रा और अन्य नेताओं पर टिप्पणी करना।
कल्याण बनर्जी ने कहा, “आर.जी. कर अस्पताल में जब हंगामा हो रहा था, तो कुछ नेताओं ने पार्टी और प्रशासन का साथ नहीं दिया।”यह एक सधा हुआ लेकिन तीखा हमला था। महुआ मोइत्रा जैसे नेता जो पार्टी के अंदर तेजी से उभरे हैं, उन्हें इस टिप्पणी में निशाने पर लिया गया।
महुआ मोइत्रा तृणमूल कांग्रेस की वह नेता हैं जो पार्टी की सीमाओं को चुनौती देती हैं। वह तेज़-तर्रार हैं, स्पष्टवक्ता हैं, और हर मंच पर बेबाक बोलने के लिए जानी जाती हैं। लेकिन इसी स्वतंत्रता ने उन्हें पार्टी के कुछ सीनियर नेताओं की आंखों की किरकिरी भी बना दिया है।
नदिया जिले के छह टीएमसी विधायकों ने ममता बनर्जी को पत्र लिखकर महुआ पर गुटबाज़ी और “असामाजिक तत्वों से जुड़ाव” जैसे गंभीर आरोप लगाए। यह सिर्फ एक निजी टकराव नहीं था, बल्कि पार्टी की भीतरी संरचना पर सवाल उठाने वाला मामला बन गया।
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इन सबके बीच एक जटिल भूमिका में हैं। एक तरफ वह महुआ के निष्कासन को “लोकतंत्र का अपमान” बताकर उनका समर्थन करती हैं, तो दूसरी ओर पार्टी के पुराने नेता इस समर्थन से नाराज़ होते दिख रहे हैं।
ममता जानती हैं कि महुआ जैसे युवा, प्रखर चेहरे उन्हें राष्ट्रीय मंच पर स्थापित कर सकते हैं, लेकिन पार्टी का पुराना गार्ड, जिसने 2011 में वामपंथी किला ध्वस्त किया। अब खुद को उपेक्षित महसूस कर रहा है।
लोकसभा चुनाव सिर पर है। और ये तनाव भी उसी की उपज है। टिकट किसे मिलेगा, किसे नहीं? महुआ मोइत्रा जैसे नेता, जिनका निष्कासन लोकसभा से हुआ है। क्या उन्हें फिर से उम्मीदवार बनाया जाएगा? और अगर कल्याण बनर्जी जैसे वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी होती है, तो क्या वे पार्टी में बने रहेंगे?
यह सिर्फ सीटों की लड़ाई नहीं है, बल्कि पार्टी के नैरेटिव की लड़ाई है। क्या टीएमसी पारंपरिक वफादारी को तवज्जो देगी या नए तेवर वाले नेताओं को?
यदि ममता दबाव में आकर मुख्य सचेतक पद पर बदलाव करती हैं, तो इससे एक बड़ा संदेश जाएगा जिससे पुराने नेता असुरक्षित महसूस करेंगे।
अगर पार्टी उन्हें फिर से टिकट देती है, तो यह ‘नई पीढ़ी बनाम पुरानी पीढ़ी’ की जंग को और भड़का सकती है। जैसे कभी मुकुल रॉय या सुवेंदु अधिकारी ने पार्टी छोड़ी थी, वैसे ही कोई नया गुट आत्मसम्मान और उपेक्षा की भावना के नाम पर नई राह चुन सकता है।
इस असंतोष से भाजपा को वह ऑक्सीजन मिल सकती है जो उसे बंगाल में फिर से ताकतवर बना सकती है।
कुल मिलाकर तृणमूल कांग्रेस इस समय दो हिस्सों में बंटी हुई दिख रही है। एक वह जो तजुर्बे, अनुशासन और सियासी कूटनीति की बात करता है,और दूसरा वह जो तेवर, साहस और स्वतंत्रता की राजनीति करना चाहता है। अब ममता बनर्जी को यह तय करना है कि वे किस रास्ते पर चलेंगी या फिर दोनों को मिलाकर कोई तीसरा रास्ता तैयार करेंगी। क्योंकि अगर यह कलह जारी रही, तो 2024 की लड़ाई में टीएमसी खुद अपने ही खिलाफ खड़ी हो जाएगी।