कल्पना कीजिए, बनारस का अस्सी घाट। गंगा की लहरों में चाँदनी की हल्की परछाईं भी बह रही है। हवा में मृदंग की ध्वनि गूंज रही है, और एक संत अपने भीतर उमड़ते भावों को शब्दों में ढालने की बेचैनी में बैठा हैं। उनके हाथ में एक कलम है, जो शायद उस पल एक कलम से ज्यादा नियति का औजार है, जिससे वह इतिहास की धारा बदलने वाले हैं। यह विक्रम संवत 1631की रात है जब गोस्वामी तुलसीदास अपनी महान कृति ‘रामचरितमानस’ का प्रारंभ करने वाले थे।
यह महज एक ग्रंथ लिखने का क्षण नहीं था ब्लकि शब्दों के भीतर ब्रह्म के प्रतिबिंब बनने का क्षण था। यह वह क्षण था जब ईश्वर केवल मंदिरों की मूर्तियों तक सीमित नहीं रहने वाले थे। वह लोकभाषा में उतरकर, हर घर, हर हृदय का हिस्सा बनने वाले थे।
वाल्मीकि ने रामायण लिखी संस्कृत में, जिसे देवताओं की भाषा कहा जाता है। परंतु तुलसीदास जानते थे कि ईश्वर की कथा को केवल देवताओं के लिए नहीं, बल्कि मनुष्यों के लिए लिखना आवश्यक है। वह जानते थे कि भाषा केवल बुद्धिजीवियों का अहंकार नहीं हो सकती, उसे जन-जन की आत्मा बनना होगा। इसलिए उन्होंने अवधी को चुना। यह राजाओं की भाषा नहीं थी, विद्वानों की भाषा नहीं थी…यह किसानों की, ग्वालों की, पत्थर तोड़ने वालों की, सड़क पर भीख मांगने वालों की भाषा थी। यह वह भाषा थी जो मिट्टी की खुशबू में घुली थी, जो हलवाहे के गीतों में थी, जो माँ की लोरी में थी।
तुलसीदास जी ने लिखा…
“बड़े भाग मानुष तनु पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।।”
यह महज पंक्तियाँ नहीं थीं, यह घोषणा थी कि मानव जीवन दुर्लभ है, और इसका सार केवल शक्ति, धन या जाति में नहीं, बल्कि भक्ति में है।
‘रामचरितमानस’ केवल राम की कथा नहीं है। जो सिर्फ इसे कथा मानते हैं… उनके लिए यह राम की आड़ में मनुष्य के आदर्शों की खोज है। तुलसीदास के राम केवल अयोध्या के राजा नहीं, वे मनुष्य के भीतर सोए विवेक, संयम और करुणा के प्रतीक हैं।
रामचरितमानस का हर कांड, हर चौपाई एक सवाल उठाती है जैसे – क्या शक्ति का अर्थ केवल युद्ध जीतना है, या शबरी के जूठे बेर खाने में भी कोई विजय है? क्या प्रेम केवल सुखद मिलन में है, या सीता का वनवास सह लेना भी प्रेम है? क्या जीवन केवल राजमहलों में बीतने के लिए है, या जंगलों में, गुफाओं में, दूसरों के लिए कष्ट सहने के लिए भी है?
तुलसीदास ने इस ग्रंथ के माध्यम से यह सिद्ध किया कि धर्म केवल ग्रंथों में नहीं, बल्कि आचरण में है। भक्ति केवल मंदिरों में नहीं, बल्कि मानवीय करुणा में है। ईश्वर केवल स्वर्ग में नहीं, बल्कि लोकभाषा के काव्य में भी हैं।
जिस प्रकार गंगा हिमालय से बहती है और अपना जल हर किसी के लिए समान रूप से उड़ेल देती है, उसी प्रकार ‘रामचरितमानस’ भी जन-जन के लिए है। न उसमें जाति की सीमाएँ हैं, न धर्म की। यह ग्रंथ गंगा की तरह है,अनंतकाल तक बहने वाली गंगा जिसके लिए सब बराबर हैं।
रामचरितमानस की यह गंगा मुग़ल शासन के कठिन दौर में भारतीय संस्कृति के लिए अमृत बन गई। यह केवल पूजा-पाठ का ग्रंथ नहीं, बल्कि आत्मसंघर्ष का ग्रंथ है। जब भी समाज अंधकार में गया, जब भी मनुष्य अपने मूल्यों से विचलित हुआ, इस ग्रंथ ने उसे दिशा दी।
समय बीतता गया। राजाओं के सिंहासन मिट्टी में मिले। संस्कृत, अवधी, हिंदी और अन्य भाषाओं ने करवटें लीं। आधुनिकता ने नए देवता गढ़े जैसे राजनीति, विज्ञान और बाजार। परंतु रामचरितमानस तब भी जीवित रहा। क्यों? क्योंकि इसका सार समय के पार है। यह ग्रंथ हमें याद दिलाता है कि संघर्ष केवल बाहरी संसार में नहीं, हमारे भीतर भी है। हर मनुष्य के भीतर एक अयोध्या होती है। संयम और नैतिकता की नगरी। परंतु उसके भीतर एक लंका भी होती है…अहंकार, मोह और स्वार्थ की भूमि। और हर मनुष्य के भीतर एक राम भी होता है, जो संघर्ष कर सकता है, जो सत्य के लिए लड़ सकता है।
आज विक्रम संवत 1631 के उस क्षण को याद करते हुए मैं इतना कहूँगा की रामचरितमानस केवल पढ़ने के लिए नहीं, जीने के लिए है। जब भी जीवन हमें कठिनाई में डाले, जब भी संदेह हमें घेर ले, तब इसकी चौपाइयाँ हमें उत्तर देती हैं।
“जिन्ह कें रही भावना जैसी।
प्रभु मूरत तिन्ह देखी तैसी।।”
यानी ईश्वर वैसे ही होते हैं, जैसे हम उन्हें देखना चाहते हैं। असल मायनों में तुलसीदास ने हमें एक ग्रंथ नहीं, बल्कि एक दर्पण दिया है जिसमें हम अपने अस्तित्व, अपनी मानवीयता और अपनी भक्ति को देख सकते हैं।