सुप्रीम कोर्ट ने एक केस में फैसला सुनाते हुए महिलाओं के हित की बड़ी बात कही है। Justice अभय एस. ओका और Justice उज्जल भुइयाँ की बेंच ने यह स्पष्ट किया कि, Maternity Leave केवल एक सुविधा नहीं बल्कि महिलाओं का मौलिक अधिकार है। ये न केवल कानून की दृष्टि से, बल्कि मानवीय दृष्टि से भी ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण है।
SC का यह फैसला उस तमिलनाडु की सरकारी टीचर की याचिका पर आया जिसे उसकी दूसरी शादी से हुए बच्चे के जन्म के बाद Maternity Leave देने से मना कर दिया गया था।
यह घटना न केवल एक महिला की व्यक्तिगत लड़ाई थी, बल्कि एक पूरे सामाजिक ढांचे पर सवाल भी खड़े करती है जैसे कि, क्या किसी महिला को प्रेगनेंसी के लिए society की permission या validation की ज़रूरत है? क्या एक महिला की दूसरी शादी या उसकी व्यक्तिगत ज़िंदगी की choices उसकी biological needs पर भारी पड़नी चाहिए?
ये केस ही बेबुनियाद था क्यूंकि प्रेगनेंसी कोई ‘life style choice’ नहीं है, यह एक biological process है, जिसमें महिला का शरीर और मानसिकता दोनों एक गहरे बदलाव से गुजरते हैं।
Medical science के अनुसार, एक सामान्य प्रेगनेंसी में महिला को लगभग 280 दिनों तक शारीरिक और मानसिक बदलाव झेलने पड़ते हैं। इस दौरान उसके शरीर में Estrogen और Progesterone जैसे हार्मोन की मात्रा में जबरदस्त परिवर्तन होता है, जिससे mood swings, fatigue, nausea, और emotional fluctuations जैसी स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं।
Postpartum period यानी बच्चे के जन्म के बाद का समय भी अत्यंत संवेदनशील होता है। इस दौरान महिला Postpartum Depression, Pelvic Pain, और Hormonal Imbalance जैसी समस्याओं से जूझ सकती है। WHO के अनुसार, दुनियाभर में हर पाँच में से एक महिला Postpartum Depression का शिकार होती है।
ऐसे में अगर किसी महिला को इस समय पर्याप्त आराम और सहूलियत नहीं मिलेगा, तो इसका सीधा असर उसके स्वास्थ्य के साथ-साथ नवजात बच्चे की सेहत पर भी पड़ेगा।
भारत में Maternity Benefit Act, 1961 के तहत महिलाओं को 26 हफ्तों तक कि Maternal Leave देने का provision है, जिसमें उन्हें पूरी सैलरी मिलती है। यह कानून न केवल कर्मचारी महिलाओं के लिए बना है, बल्कि यह सामाजिक न्याय का भी हिस्सा है। सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि “कोई भी संस्था महिला को Maternity leave लेने से रोक नहीं सकती”।
तमिलनाडु की टीचर को Maternity leave इसलिए नहीं दी गई थी क्योंकि वह बच्चा उसकी दूसरी शादी से पैदा हुआ था। यह सोच ही छोटी और चिंतनीय है। सवाल है कि क्या एक नवजात शिशु को उसकी माँ के वैवाहिक इतिहास की सजा मिलनी चाहिए? या क्या एक महिला को बार-बार अपने मातृत्व को साबित करना पड़ेगा?
यह फैसला केवल उस महिला को न्याय नहीं देता, यह उन हजारों महिलाओं के लिए भी उम्मीद की किरण है जो पारिवारिक या सामाजिक कारणों से भेदभाव झेलती हैं।
Working women’s के लिए Maternity leave क्यों जरूरी?
Recovery – Delivery के बाद शरीर को healing के लिए समय चाहिए। यदि एक महिला को तुरंत काम पर लौटना पड़े तो इससे उसकी health पर बुरा असर पड़ सकता है।
बच्चे की देखभाल – WHO के अनुसार, नवजात को कम-से-कम 6 महीनों तक exclusive breastfeeding की ज़रूरत होती है। इसके लिए माँ की उपस्थिति ज़रूरी है।
Work-Life Balance – यदि एक महिला को workplace से सम्मान और सहयोग नहीं मिलेगा, तो वह अपने करियर को स्थायी रूप से छोड़ सकती है, जिससे gender inequality और बढ़ेगी।
समाज को समझदार और संवेदनशील बनने की ज़रूरत!
भारत में महिलाओं की labour force participation rate सिर्फ 24% है, जो वैश्विक औसत से बहुत कम है। इसका एक बड़ा कारण workplace पर pregnancy or post pregnancy को लेकर असंवेदनशीलता है। जब तक हम Maternity को सामाजिक भूमिका के बजाय एक जैविक और कानूनी आवश्यकता के रूप में नहीं देखेंगे, तब तक हम महिलाओं को सशक्त नहीं बना सकते।
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय केवल एक महिला की जीत नहीं है ब्लकि हर महिला के हित की बात है। Maternity leave को सिर्फ policy की नज़र से नहीं देखना चाहिए, यह एक ऐसी biological, emotional और constitutional necessity है जिससे कोई समझौता नहीं किया जा सकता। क्यूंकि जब एक महिला माँ बनती है, तो वह केवल एक बच्चा ही नहीं जन्म देती…वह एक नई पीढ़ी, एक नया समाज गढ़ने में योगदान देती है। और इस योगदान को सम्मान, अधिकार और सहानुभूति मिलनी चाहिए वो भी बिना किसी ‘अगर-मगर’ वाली शर्त के।