जब भी हम किसी से ‘ओशो’ शब्द सुनते है तो हमारे दिमाग इस शब्द के साथ कई दूसरे अनकहे शब्द भी गूंजते है…जैसे कल्ट लीडर, संत, अमीरों के गुरु, भगवान, दार्शनिक, धर्म और समाज विरोधी व्यक्ती या फिर सेक्स गुरु!…ओशो अपने समय मे इतने कंट्रोवर्शियल रहे है कि आज भी जब कोई व्यक्ति ओशो की किताबें पढ़ता है या उनके वीडियो देखता है, तो कई लोग उसे यही सलाह देते हैं कि ‘पढ़ो-सुनो… पर उनकी बातें मानना मत। वे जैसा कहें, वैसा फॉलो मत करना।’ ओशो आप के लिए उन सारे शब्दों मे से कुछ भी हो सकते हैं। लेकिन उससे पहले उनके साथ जुड़े ईन टाइटल्स के पीछे की कहानी के बारे मे जान लेना बहुत जरूरी है। तो आइये कोशिश करते हैं इतिहास के उन पन्नों को पलटने की जिनसे ये पता लगेगा कि आखिर कैसे ओशो के साथ ये सभी टाइटल्स जुड़ गए। साथ ही ओशो से जुड़े उन पहलुओं पर भी बात करते ही जिन पर आज तक ज्यादा कुछ कहा सुना नहीं गया और कैसे उनके बचपन से जुड़ी कुछ घटनाएँ बाद मे उनकी सोच मे हमेशा झलकती रहीं।
ओशो का अर्थ होता है वो शख़्स जिसने अपने आपको सागर में घोल दिया हो। ये एक ऐसा नाम है जिसने अपने प्रश्नों और तर्को की वजह से भारत सहित दुनिया भर मे लाखों करोड़ों लोगों को अपने साथ ना सिर्फ जोड़ा बल्कि उन सब का ईश्वर भी बन गया।
11 दिसंबर 1931 को मध्य प्रदेश में जन्मे ओशो का असली नाम चंद्रमोहन जैन था। बढ़ती उम्र के अलग अलग पड़ाव मे जिस तरह उनके सवाल और तर्क तीखे होते चले गए उसी के साथ साथ उनके चाहने वाले और पूजने वाले भी बढ़ते गए। हर अलग पड़ाव मे उन्हें नए नाम भी मिलते रहे। कुछ लोग उन्हें चंद्रमोहन कहते थे कोई आचार्य रजनीश, कोई भगवान रजनीश तो कोई सिर्फ ओशो। अलग-अलग नाम और पहचान के पीछे उनसे जुड़े कई अनसुने किस्से है।
चंद्रमोहन 7 साल की उम्र तक अपने नाना – नानी के साथ गांव मे रहे। माता – पिता से अलग होने की पीड़ा के शून्य को नाना-नानी ने भरने की कोशिश तो कि लेकिन बाल चंद्रमोहन तभी से एकांकी पसंद रुझान वाले हो गए थे। वे एक सामान्य बच्चे की तरह बड़े हुए लेकिन तब भी उनमें एक गुण ऐसा था जो उन्हें बाकी बच्चों से अलग करता रहा। ये गुण था सवाल, विचार और तर्क ढूंढने का। एक बार वह अपने क्लास मे बैठे हुए थे जहां उनके टीचर पेड़ों के बारे मे बता रहे थे। टीचर की बातें चंद्रमोहन सुन तो रहे थे लेकिन गौर खिड़की से थोड़ी दूर लगे पेड़ पर कर रहे थे। टीचर इस बात से नाराज़ हो गए और उन्होंने चंद्रमोहन को पीट कर क्लास से बाहर निकाल दिया। वो स्कूल से तो निकले लेकिन उनका किताबों से लगाव कभी नहीं छुटा अपने पूरे जीवन मे उन्होने लाखों किताबें पढ़ी होंगी। जिससे उन्हें अनंत ज्ञान तो मिला लेकिन फिर भी उन्हें सारे सवालों के जवाब नहीं मिल पाए।
चंद्रमोहन को गांव के किनारे बहने वाली नदी के पास बैठे रहना बहुत पसंद था। कहा जाता है कि इस दौरान उनकी मुलाकात उनके असली गुरुओं से हुयी जिनके नाम मग्गा बाबा, पग्गल बाबा और मस्तो बाबा था। इन्होंने ही ओशो को आध्यात्म की ओर आकर्षित किया।
बचपन मे चंद्रमोहन को देखकर भला किसने ही सोचा होगा कि जो बच्चा रंग बिरंगे कांच के टुकड़ों से दुनिया को देखना पसंद करता है, कल लोग उसी के चुने हुए रंग के कपड़े पहनने लगेंगे और दुनिया भर की सरकारें भी उससे डरने लग जाएंगी।
रिलिजन, उसके लूपहोल्स और कमियों पर तर्क देने वाले रजनीश ने पहली बार खुद धर्म शब्द अपनी नानी के मुंह से सुना था। आप ये जान कर हैरान हो जायेंगे की धर्म के बारे मे जानने की उनकी जिज्ञासा के पीछे उनकी एक लालच थी। ये लालच कुछ और नहीं बल्कि नानी द्वारा बनाये जा रहे लड्डू, जलेबी और अन्य पकवानों को खाने की थी। जो एक धर्म चर्चा करने आ रहे एक संत के लिए बनाए जा रहे थे। नानी को शायद तब अंदाजा भी नहीं होगा कि यही रजनीश कल उसी धर्म चर्चा मे महारत हासिल कर सभी धर्म और पंथों की जड़ों को हिला देगा।
रजनीश को कुछ लोग अपवाद मानते हैं तो कुछ सिर्फ उनसे जुड़े विवादों तक सीमित हैं। कुछ लोग उनमे भगवान देखते हैं तो कुछ सिर्फ एक कल्ट लीडर। हालांकि कुछ बातों से मैं समझाने की कोशिश करूंगा कि, ओशो अन्य कल्ट लीडर्स से अलग कैसे हैं?
ओशो कुछ बातों मे बाकी कल्ट लीडर्स जैसे तो थे लेकिन कई मायनों मे उन सब से बहुत अलग थे। बाकी कल्ट लीडर्स की तरह ओशो ने भी अपनी ज्यादातर कही गई बातों मे सेक्स, उनकी ऑथोरिटी और दुनिया के अंत वाली बातों पर काफी ज़ोर दिया था।
लेकिन कई मसलों मे वे बाकियों से अलग थे जिस वजह से बेहद पसंद किया गया। जहां ज़्यादातर कल्ट लीडर्स अपने इकनॉमिकल स्टेटस को छुपाये रखते है वहीं ओशो खुलेआम दावा करते रहे कि वो अमीरों के गुरु है। उनकी 93 रोल्स रॉयस उसी बात का खुला सबूत है। इतना ही नहीं जहां बाकी कल्ट लीडर्स बाकियों को त्याग का ज्ञान तो देते है लेकिन खुद वो चीज़ नहीं करना चाहते। ओशो बिल्कुल ऐसा ढोंग नहीं करते थे। उन्हें पैसे से लगाव था वे इस बात को खुलेआम कहते रहें है।
बाकी कल्ट लीडर्स से अलग उनकी सेक्स गुरु वाली इमेज भी किसी से नहीं छुपी नहीं थी। ‘सिगमंड फ्रायड’ की तरह ओशो ने भी इस विषय पर खुलकर अपने विचार रखे जिसके कारण उनकी आलोचना भी हुयी। इतिहास मे जितने भी कल्ट लीडर्स हुए उनमे से ज्यादातर ने ऐसा सिस्टम बनाया था जिसमें वे खुद सेक्स का एक्सेस पा सकें लेकिन ओशो के साथ ऐसा नहीं था। उन्होंने ऐसा सिस्टम बनाया जिसमें उनके फॉलोअरस् को सेक्स लिबर्टी का एक्सेस मिला। क्यूंकि ओशो का ऐसा मानना था कि समाज सेक्स को टैबू बनाकर मनुष्यों को कई अन्य महत्वपूर्ण कार्य करने की राह मे एक बाधा बना देता है।
अन्य कल्ट लीडर्स जो सबसे बड़ी गलती करते रहे हों वो ये है कि उन्होंने अलग अलग फिलॉसफी, अन्य कल्ट के नियम और दूसरे धर्मों को मिला जुला कर अपना एक बिलिफ सिस्टम बनाया जिससे वे कई बार उसी मे उलझ गये। जबकि ओशो ने एक काउंटर कल्चर जैसे बिलिफ सिस्टम को आम जनमानस की चेतना का हिस्सा बनाया।
ओशो ने लोगों को उत्तर उसी भाषा में दिये जिस भाषा में वे चाहते हैं। उनसे कभी कोई बहस नहीं कर सका। आप देखेंगे कि एक तरफ अन्य लीडर्स के पास कई सवालों के उत्तर ही नहीं थे। लेकिन जब आप ओशो को सुनते हैं तो आप उनके जवाब से हमेशा संतुष्ट रहेंगे। उनकी कही बातों मे कोई ना कोई बात आपके काम की जरूर होगी।
उन्होंने हर पूर्व दार्शनिक के विचारों का तर्को सहित खंडन भी करते लेकिन जहां जरूरी हो वहां उनका महिमामंडन भी किया। ये कहना गलत नहीं होगा कि ओशो अब एक इंसान नहीं बल्कि विचार बन चुके हैं।
आज भी ओशो के नाम पर बहस चलती रहती है। उनके तर्को के लिए उनका उतना सम्मान भी होता है। लेकिन फिर भी मुझे डर है कि कहीं उनकी नैतिकता से जुड़ी बहस में पड़कर लोग उनकी बातों में जड़ित मणियों की चमक से अछूते न रह जाएं।
Note : इस लेख के कुछ हिस्सों मे दार्शनिक काव्यात्मकता और रचनात्मक स्वतंत्रता का उपयोग किया गया है। ओशो और अन्य कल्ट लीडर्स के बीच अंतर वाले सभी बिंदु लेखक ‘रजनीश तिवारी’ के व्यक्तिगत विचार हैं। कृपया उन्हें तथ्य मानकर अन्यथा न लिया जाये।