नेताजी सुभाष चंद्र बोस का 1941 में कोलकाता से बर्लिन तक कि गुप्त यात्रा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे रोमांचक और साहसिक अध्यायों में से एक है। यह यात्रा न केवल उनकी अद्वितीय नेतृत्व क्षमता को प्रदर्शित करती है, बल्कि उनके अटूट संकल्प और मातृभूमि के प्रति असीम प्रेम को भी उजागर करती है।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, ब्रिटिश सरकार ने भारत में स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं पर कड़ी निगरानी रखी हुई थी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस, जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रमुख नेता थे, अंग्रेजों की नीतियों के प्रखर विरोधी थे। उनकी बढ़ती लोकप्रियता और गतिविधियों के कारण ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 1940 में गिरफ्तार कर लिया और कोलकाता स्थित उनके एल्गिन रोड आवास पर नजरबंद कर दिया।
नजरबंदी के दौरान भी नेताजी का मन स्वतंत्रता की योजनाओं में व्यस्त था। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के चंगुल से निकलकर अंतर्राष्ट्रीय समर्थन प्राप्त करने की योजना बनाई। इस साहसिक कदम के लिए उन्होंने अपने विश्वासपात्र भतीजे शिशिर कुमार बोस की सहायता ली। शिशिर तब मात्र 20 वर्ष के थे, लेकिन अपने चाचा के प्रति उनकी निष्ठा और साहस अटूट था।
भागने की योजना के तहत नेताजी ने अपनी पहचान बदलने का निर्णय लिया। उन्होंने ‘मोहम्मद जियाउद्दीन’ नाम अपनाया और इस नाम से विज़िटिंग कार्ड भी छपवाए। इसके अलावा, उन्होंने अपने पहनावे में भी बदलाव किया ताकि पहचान में न आ सकें।
16 और 17 जनवरी 1941 की मध्यरात्रि को, नेताजी और शिशिर ने अपनी यात्रा प्रारंभ की। उन्होंने 1937 मॉडल की जर्मन वांडरर W24 सीडान कार का उपयोग किया, जो उस समय की एक उन्नत वाहन थी। नेताजी इस कार की पिछली सीट पर बैठे थे, जबकि शिशिर कार चला रहे थे। कार की 40 लीटर ईंधन क्षमता और 1767 सीसी का इंजन था, जो अधिकतम 108 किमी प्रति घंटा की गति प्रदान करता था।
कोलकाता की सड़कों पर अंग्रेजों की कड़ी निगरानी के बावजूद, वे सफलतापूर्वक हावड़ा ब्रिज पार करके ग्रैंड ट्रंक रोड पर आगे बढ़े। रास्ते में उन्होंने बर्दवान जिले में विश्राम किया और फिर आसनसोल के बाहरी इलाके की ओर बढ़े। यहां से वे झारखंड के गोमोह रेलवे स्टेशन पहुंचे, जिसे अब नेताजी सुभाष चंद्र बोस गोमो रेलवे स्टेशन के नाम से जाना जाता है।
गोमोह से नेताजी ने कालका मेल पकड़ी और दिल्ली पहुंचे। दिल्ली में कुछ समय बिताने के बाद, वे पेशावर की ओर रवाना हुए। पेशावर से काबुल तक की यात्रा अत्यंत जोखिमभरी थी, लेकिन नेताजी ने इसे भी सफलतापूर्वक पार किया। काबुल में लगभग 48 दिनों के इंतजार के बाद, वे समरकंद होते हुए मास्को पहुंचे। अंततः मार्च 1941 में, नेताजी बर्लिन पहुंचे, जहां उन्होंने जर्मन सरकार से समर्थन प्राप्त करने का प्रयास किया।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस की यह गुप्त यात्रा उनके अद्वितीय साहस, रणनीतिक कौशल और मातृभूमि के प्रति उनकी अटूट निष्ठा का प्रतीक है। यह यात्रा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है, जो आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी।