25 मार्च 1898, यह वह दिन था जब स्वामी विवेकानंद ने मार्गरेट नोबल को ‘सिस्टर निवेदिता’ के रूप में स्वीकार किया। यह केवल एक गुरु द्वारा शिष्य को अपनाने की साधारण घटना नहीं थी, बल्कि यह भारतीय आध्यात्मिकता और समर्पण के मिलन की पराकाष्ठा थी। एक पश्चिमी महिला, जिसने भारत को अपनी आत्मा का निवास बना लिया, और एक महान सन्यासी, जिसने इस देश को आत्मविश्वास और स्वाभिमान का मंत्र दिया…उन दोनों के बीच यह बंधन साधारण नहीं हो सकता था।
मार्गरेट नोबल एक आयरिश शिक्षिका थीं, जिनका झुकाव ज्ञान, सेवा और आध्यात्मिकता की ओर था। जब वे स्वामी विवेकानंद से मिलीं, तो उनकी आत्मा में कुछ जाग उठा। स्वामी जी की वाणी में वह शक्ति थी जिसने उनके जीवन का मार्ग बदल दिया। वे भारत आईं, इसकी संस्कृति, गरीबी, संघर्ष और सौंदर्य को अपनाया। विवेकानंद ने उनका नाम रखा ‘निवेदिता’ जिसका अर्थ है “पूर्ण समर्पित”।
सिस्टर निवेदिता का जीवन केवल एक विदेशी के भारत प्रेम की कहानी नहीं थी, बल्कि यह एक ऐसे व्यक्तित्व की यात्रा थी जिसने खुद को इस देश के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। वे केवल एक साधारण शिष्या नहीं थीं, बल्कि भारत की स्वतंत्रता संग्राम की एक मौन शक्ति थीं। उनके विचार, उनकी लेखनी, और उनकी कर्मठता ने समाज सुधार, नारी शिक्षा और राष्ट्रीय चेतना को नई ऊँचाई दी।
गुरु-शिष्य परंपरा केवल ज्ञान का प्रसार नहीं है, यह आत्मा से आत्मा का मिलन है। गुरु वही चुनता है जो सीखने के लिए स्वयं को पूर्ण रूप से समर्पित कर सके, और शिष्य वही होता है जो ज्ञान के लिए अपना अहं छोड़ सके। जब स्वामी विवेकानंद ने सिस्टर निवेदिता को शिष्य के रूप में स्वीकार किया, तो उन्होंने केवल एक व्यक्ति को नहीं अपनाया, बल्कि उस चेतना को जगाया जो भविष्य में भारत के लिए एक स्तंभ बनी।
विवेकानंद के लिए निवेदिता का होना महज शिक्षण का विषय नहीं था। यह आत्मा का आत्मा से संवाद था। एक ऐसे गुरु का जो देख सकता था कि यह महिला केवल सीखने नहीं, बल्कि कुछ बड़ा करने के लिए आई है। और एक ऐसी शिष्या का जो अपने अस्तित्व को इस सीख के आगे समर्पित करने के लिए तैयार थी।
निवेदिता का जीवन आगे चलकर भारत की सेवा में बीता। वे रामकृष्ण मिशन से जुड़ीं, महिला शिक्षा को बढ़ावा दिया, और राष्ट्रीयता की भावना को जगाने का कार्य किया। उन्होंने बंगाल के क्रांतिकारियों को प्रेरित किया, लोकमान्य तिलक से लेकर अरविंद घोष तक उनके प्रयासों की सराहना की।
उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि सच्चा शिष्य वही होता है जो अपने गुरु के विचारों को केवल सुनता नहीं, बल्कि उन्हें जीता है। और सच्चा गुरु वही होता है जो अपने शिष्य में आने वाले समय का दर्शन कर सके।
25 मार्च 1898 की यह घटना मात्र एक गुरु द्वारा शिष्य को स्वीकारने की घटना नहीं थी, बल्कि यह भारतीय पुनर्जागरण के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय था। यह घटना हमें याद दिलाती है कि जब कोई गुरु अपने शिष्य को चुनता है, तो वह केवल ज्ञान नहीं देता…वह भविष्य को गढ़ता है। और जब कोई शिष्य अपने गुरु को अपनाता है, तो वह केवल सीखता नहीं वह इतिहास बनाता है।