भारत में ऐतिहासिक स्थलों और धार्मिक स्थापनाओं को लेकर विवाद कोई नया विषय नहीं है। हाल के दिनों में यह बहस एक बार फिर गर्म हो गई है। संभल की जामा मस्जिद के सर्वे और उसके बाद हुई पत्थरबाजी के मामले ने पहले से ही माहौल को संवेदनशील बना दिया था। अब अजमेर दरगाह के सर्वे की मांग वाली याचिका को भी स्वीकार कर लिया गया है। याचिका में अजमेर दरगाह को एक हिंदू मंदिर बताया गया है।
ऐतिहासिक रूप से भारत में मुगलों और तुर्कों ने कई धार्मिक स्थलों का पुनर्निर्माण किया। उनकी नीति अक्सर साम्राज्यवादी होती थी, और धार्मिक स्थलों को बदलकर वे अपनी ताकत का प्रदर्शन करते थे। मुगल और तुर्की शासकों के शासनकाल में कई धार्मिक स्थलों को पुनर्निर्मित या बदला गया, यह बात इतिहास के पन्नों में भी दर्ज है। हालांकि, ऐसे दावों की सत्यता को लेकर पुरातात्विक और ऐतिहासिक प्रमाणों की आवश्यकता होती है।
2018 में उत्तर प्रदेश शिया वक्फ बोर्ड के चेयरमैन रह चुके वसीम रिजवी ने उन विवादित मस्जिदों के स्थलों को हिंदुओं को लौटाने की अपील की थी, जिन्हें मंदिरों को तोड़कर बनाए जाने का आरोप है।रिजवी की लिस्ट में ये 9 विवादित मस्जिदें थीं-अयोध्या की बाबरी मस्जिद, मथुरा की ईदगाह मस्जिद, वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद, जौनपुर में अटाला मस्जिद, गुजरात के पाटन में जामी मस्जिद, अहमदाबाद में जामा मस्जिद, पश्चिम बंगाल के पांडुआ में अदीना मस्जिद, मध्य प्रदेश के विदिशा में बीजा मंडल मस्जिद और दिल्ली की कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद शामिल थी।
उनके पहले राम जन्मभूमि मंदिर के बारे में जांच के बाद अहम निष्कर्ष निकालने वाले आर्कियोलॉजिस्ट ‘के. के. मोहम्मद’ ने भी कहा है कि मुसलमानों को ज्ञानवापी और शाही ईदगाह मस्जिदों को हिंदुओं को सौंप देना चाहिए।
हाल ही में, संभल की शाही जामा मस्जिद को लेकर हिंदू पक्ष ने दावा किया है कि यह मस्जिद पहले “श्रीहरिहर मंदिर” थी, जिसे मुगल काल में मस्जिद में परिवर्तित किया गया। इस दावे के आधार पर सिविल कोर्ट ने एडवोकेट कमीशन के तहत मस्जिद का सर्वेक्षण कराने का आदेश दिया। सर्वे के दौरान पुलिस और प्रशासन की मौजूदगी में वीडियोग्राफी और फोटोग्राफी की गई। हालांकि, इस दौरान माहौल काफी तनावपूर्ण रहा और पत्थरबाजी की घटनाएं हुईं, जिससे सामुदायिक तनाव बढ़ गया।
इस मुद्दे पर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के प्रोफेसर और इतिहासकार एम.के. पुंडीर ने बताया, “बाबरनामा के मुताबिक, पानीपत के युद्ध के बाद बाबर संभल पहुंचा। इस ग्रंथ में लिखा है कि वहां एक मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण किया गया था। हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि वर्तमान मस्जिद वहीं संरचना है या मंदिर के पास किसी अन्य जगह पर स्थित है।”
इतिहासकार डॉ. दानपाल सिंह के अनुसार, भारत में इस्लाम जब आया तो तलवारों से लैस मुस्लिम आक्रमणकारियों के साथ आया। ऐसे में इसे सहजता से स्वीकार करने में हिंदुस्तान की जनता को काफी मुश्किल हुई। इल्तुतमिश, बलबन और अलाउद्दीन खिलजी जैसे सुल्तानों ने जबरन धर्मांतरण की काफी कोशिश की।
पुंडीर ने आगे कहा। “जो मस्जिद का वर्तमान ढांचा है, वह अपेक्षाकृत नया लगता है। यह संभव है कि इसके निर्माण में पुराने इमारतों या मंदिर के अवशेषों का उपयोग किया गया हो। भारत में यह परंपरा रही है कि नई इमारतें बनाने में पुराने ढांचों का उपयोग किया जाता था। लेकिन इस बात की पुष्टि करना मुश्किल है कि मौजूदा मस्जिद उस समय के मंदिर की जगह पर है या नहीं।”“1526 में पानीपत का युद्ध हुआ और 1527 के आसपास बाबर का कमांडर संभल पहुंचा। बाबरनामा के अनुसार, उसने वहां के मंदिर को आंशिक रूप से नष्ट किया।”
संभल मस्जिद के खंभे मंदिर होने की दावे को और मजबूत बनाते हैं। इस दावे का आधार बाबरनामा को बताया जा रहा है, जिसे खुद मुगल बादशाह बाबर ने लिखी थी। दावा है कि 1529 में शाही जामा मस्जिद का निर्माण ‘मीर बेग’ से करवाया गया था। इस मीर बेग को ही मीर बाकी बताया जा रहा है, जो बाबर के जमाने में अवध का मुगल गवर्नर था। जिसने 1528 में अयोध्या में रामजन्मभूमि की जगह बाबरी मस्जिद भी बनवाई थी।
इसी बीच राजस्थान की एक अदालत ने अजमेर की ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती दरगाह का सर्वेक्षण कराने की मांग वाली याचिका स्वीकार की। याचिका में यह दावा किया गया है कि यह दरगाह मूलतः एक हिंदू मंदिर थी।
इसे समझने से पहले ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के भारत आने के इतिहास पर एक नज़र डाल लेते हैं। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती एक सूफी फकीर संत और दार्शनिक थे। उनका जन्म 1143 ई. में ईरान के सिस्तान क्षेत्र में हुआ था। यह वर्तमान में ईरान के दक्षिण पूर्वी भाग में स्थित है, जो अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सीमा से लगा हुआ है। चिश्ती ने अपने पिता के कारोबार को छोड़कर आध्यात्मिक जीवन को अपनाया। अपनी आध्यात्मिक यात्रा के दौरान उनकी मुलाकात प्रसिद्ध संत हजरत ख्वाजा उस्मान हारूनी से हुई। उन्होंने ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती को अपना शिष्य स्वीकार किया और उन्हें दीक्षा दी। 52 साल की उम्र में उन्हें शेख उस्मान से ख़िलाफत मिली। इसके बाद वे हज, मक्का और मदीना गए। वहां से वह मुल्तान होते हुए वह भारत आए और अजमेर में अपना ठिकाना बनाया।
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने वर्ष 1192 ई. में अजमेर में रहने के साथ ही उस समय उपदेश देना शुरू किया, जब मुहम्मद गोरी (मुईज़ुद्दीन मुहम्मद बिन साम) ने तराइन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज चौहान को हराकर दिल्ली में अपना शासन कायम कर लिया था। आध्यात्मिक ज्ञान से भरपूर चिश्ती के शिक्षाप्रद प्रवचनों ने जल्द ही स्थानीय आबादी के साथ-साथ सुदूर इलाकों में राजाओं, रईसों, किसानों और गरीबों को आकर्षित किया। उनकी मृत्यु के बाद मुगल बादशाह हुमायूं ने वहां पर उनकी कब्र बनवा दी।
हालांकि, कई विदेशी यात्रियों जैसे अलबरूनी और इब्न बतूता ने अपने लेखों में अजमेर के बारे में जो उल्लेख किया है, उसमे कुछ विवरण ऐसे हैं जो इस स्थल के प्रारंभिक हिंदू महत्व को दर्शाते हैं।
हाल ही में हिंदू सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष विष्णु गुप्ता ने दरगाह से संबंधित मुद्दों को उठाते हुए कानूनी हस्तक्षेप की मांग की थी। विष्णु गुप्ता की ओर से दाखिल की गई याचिका में दरगाह शरीफ में शिव मंदिर होने का दावा किया गया है। कोर्ट में पिछली सुनवाई के दौरान सबूत के तौर पर एक खास किताब पेश की गई थी। इस किताब के हवाले से यह दावा किया गया था कि दरगाह में एक हिंदू मंदिर था। यह किताब अजमेर निवासी हर विलास शारदा द्वारा वर्ष 1911 में लिखी गई थी।
हरविलास शारदा एक शिक्षाविद, न्यायाधीश, राजनेता एवं समाज सुधारक थे। शारदा अजमेर के सम्मानित शख्सियत थे। उन्होंने 1892 में अजमेर-मेरवाड़ा प्रांत के न्यायिक विभाग में कार्य किया। 1894 में वह अजमेर के नगर आयुक्त बने। 1923 में उन्हें अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश बनाया गया। वह दिसंबर 1923 में सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त हुए। 1925 में उन्हें मुख्य न्यायालय जोधपुर का वरिष्ठ न्यायाधीश नियुक्त किया गया।
1910 मे एक किताब ‘अजमेर हिस्टोरिकल एंड डिस्क्रिप्टिव’ 1910 में आई जो 1920 में पुनः प्रकाशित हुई थी। इसमे बताया गया है कि दरगाह के निर्माण में हिंदू मंदिर के मलबे का इस्तेमाल किया गया था। पुस्तक में दरगाह के भीतर एक तहखाने का विवरण दिया गया है, जिसमें कथित तौर पर एक शिव लिंग होने का दावा है। इस शिवलिंग की पारंपरिक रूप से एक ब्राह्मण परिवार पूजा करता था। पुस्तक में दरगाह की संरचना में जैन मंदिर के अवशेषों का भी उल्लेख किया गया है और इसके 75 फीट ऊंचे बुलंद दरवाजे के निर्माण में मंदिर के मलबे के तत्वों का भी इसमें वर्णन है। जज हरविलास ने बताया कि अजमेर महायोद्धा पृथ्वीराज चौहान के वंशजो ने ही यह मंदिर बनाया था।
इसी किताब का हवाला देते हुए हिंदू सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष विष्णु गुप्ता ने अपनी याचिका में कहा कि दरगाह की जमीन पर पहले भगवान भोलेनाथ का एक मंदिर था। इस शिव मंदिर में पूजा और जलाभिषेक होता था। याचिका में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण से दरगाह का सर्वेक्षण करने का भी अनुरोध किया गया है, जिसमें उस क्षेत्र में फिर से पूजा-अर्चना की जा सके जहां शिव लिंग बताया जाता है।
इस मामले में अजमेर की एक स्थानीय अदालत की ओर से केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय, आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया और अजमेर दरगाह समिति को नोटिस जारी किया गया है। सुनवाई के लिए 20 दिसंबर की तारीख तय की है।