“रात के सन्नाटों में, एक आवाज़ आज भी उभरती है। जो न सिर्फ़ कानों को, बल्कि रूह को छू लेती है। वो आवाज़, जो कभी दर्द की तन्हाई बन जाती है,तो कभी मोहब्बत का नग़्मा गुनगुनाती है, तो कभी एक उमंग सी उठा देते है। वो आवाज़, मोहम्मद रफ़ी की है। जाने कितने आशिक़ों ने उनकी आवाज़ में इश्क़ किया, जाने कितने दिलों ने उनके सुरों में सुकून पाया। उनके गाने मंदिर की घंटी की तरह पवित्र थे और मस्जिद की अज़ान की तरह पाक। उनकी आवाज़ में रब का नूर था,जो हर दिल में उतरता चला गया।”
“पहले भी मैं तुमसे मिला हूं पहली दफा ही ऐसा लगा”… आज मोहम्मद रफ़ी का 100 वां जन्मदिन है। आज वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन कुछ समय पहले रील्स में आपने रफी साहब की आवाज़ में ये गीत जरूर सुना होगा। हाँ, मुझे मालूम है कि ये रफी साहब ने नहीं ब्लकि विशाल मिश्रा ने गाया है लेकिन artificial intelligence के जरिए अब ऐसा भी मुमकिन है। इस ट्रेंड के जरिए पुराने गाने वापस जिवंत हुए, जिवंत तो वो पहले से भी थे लेकिन शायद रोजमर्रा के थपेड़ों मे भुला दिए गये थे। हालांकि इसमे कोई दो राय नहीं कि रफी साहब या किसी अन्य कि नकल भी उनकी तौहीन है। लेकिन इस क्रिएटिव लिबर्टी मे कोई नुकसान भी कहां ही है।
रफ़ी साहब की गायकी महज़ संगीत नहीं, आत्मा की परछाईं थी। उनका हर गीत, एक कविता थी; हर सुर, एक एहसास। जैसे बंसी से कृष्ण का संबंध था, वैसे ही संगीत से रफ़ी का। उनकी आवाज़ सुनने वाला जैसे अपने अंदर के हर दर्द, हर खुशी को गुनगुनाने लगता था।
1919 के कोटला सुल्तान सिंह, पंजाब में जन्मे रफ़ी का बचपन बड़ा साधारण था। लेकिन उनकी साधारणता में ही असाधारणता छिपी थी। कहते हैं कि बचपन में उनके गाँव के एक फकीर की गूँजती आवाज़ ने उन्हें संगीत की ओर खींचा। यही वह पहला सुर था, जिसने रफ़ी को सुरों की दुनिया तक खिंच लाया।
उनका सफर लाहौर से शुरू होकर मुंबई तक पहुँचा, लेकिन इस सफर में कहीं भी उन्होंने अपने दिल की मासूमियत और सुरों की पवित्रता नहीं खोई। जब उन्होंने अपना पहला गाना रिकॉर्ड किया, वह महज़ एक शुरुआत नहीं थी; वह एक वादा था कि भारतीय संगीत को एक ऐसा सितारा मिलने वाला है, जो सदियों तक चमकेगा।
रफ़ी साहब की खासियत थी उनकी आवाज़ का विविधता भरा रंग। रोमांस हो, जैसे “चौदहवीं का चाँद हो,” या दर्द भरे नगमे जैसे “क्या हुआ तेरा वादा गीत की वो लाइन… तेरी बांहों में बीती हर शाम बेवफ़ा ये भी क्या याद नहीं में एक मार्मिक स्पर्श के साथ एक तरह का दर्द से भरा गुस्सा भी है। गुस्सा हारे हुए व्यक्ती की सबसे बड़ी हार का। या फिर वो गीत “एहसान तेरा होगा मुझ परदिल चाहता है वो कहने दो मुझे तुमसे मोहब्बत हो गयी है मुझे पलको की छाँव में रहने दो… में मिन्नत करता हुआ एक फ़कीर।
उनके एक अन्य गीत “दीवाना हुआ बादल क्या गम की घटा छाई”… इस गीत से जुड़ा किस्सा भी याद आ रहा है। रफी साहब की आवाज की ताकत का एहसास मशहूर गायक एसपी बालासुब्रमण्यम के एक अनुभव से भी होता है, जिसने रफी साहब की आवाज और उनके गानों के प्रभाव को बेहद खूबसूरती से व्यक्त किया। दिल छून लेने वाली इस घटना को खुद बालासुब्रमण्यम ने साझा किया था। एसपी बालासुब्रमण्यम ने एक कार्यक्रम में रफी साहब से जुड़ा दिलचस्प किस्सा बताते हुए कहा था कि जब वह इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ाई कर रहे थे और गायन में अपना करियर शुरू भी नहीं किया था, तब वह रोज साइकिल से कॉलेज जाते थे। रास्ते में एक चाय की दुकान थी, जहां पुराने गाने रेडियो पर बजते थे। इस दौरान हफ्ते में कम से कम तीन दिन रफी साहब का एक खास गाना बजता था। हालांकि, उस वक्त बालासुब्रमण्यम को यह नहीं पता था कि यह गाना किस फिल्म का है और न ही यह कि यह गाना रफी साहब ने गाया है।
उनकी आवाज़ में दर्द का ऐसा जादू था कि सुनने वाला खुद को उसी दर्द में बहता हुआ महसूस करता। “ओ दुनिया के रखवाले” सुनते वक्त जैसे दिल टूट कर पुकार उठता है। वहीं “आने से उसके आए बहार” जैसे गीत में जीवन की चमक का अहसास होता है।
संगीत की दुनिया में जहाँ सितारों का अहंकार अक्सर उनके कद को छोटा कर देता है, रफ़ी वहाँ हमेशा जमीन से जुड़े रहे। उनकी सादगी, उनकी नम्रता और उनकी मोहब्बत ने उन्हें सिर्फ एक गायक नहीं, बल्कि एक इंसान के तौर पर भी महान बनाया।
31 जुलाई 1980 का वह दिन जब मोहम्मद रफ़ी हमें छोड़ गए, जैसे संगीत ने अपनी आत्मा को खो दिया। लेकिन उनकी आवाज़ आज भी हर कोने में गूँजती है। हर गली, हर चौराहे पर उनके गीत बजते हैं, और हर दिल में उनकी धुनें बसती हैं।
रफ़ी साहब सिर्फ गायक नहीं थे; वह एक युग थे। उनकी आवाज़ उस अमर नदी की तरह है, जो समय के रेगिस्तान को भी हरा-भरा बना देती है। उनकी गायकी हमें सिखाती है कि कला आत्मा का आईना होती है, और आत्मा कभी मरती नहीं।