भारतीय राजनीति आज दलित और पिछड़ों के इर्द-गिर्द घूमती है। लेकिन एक ऐसा समय भी था, जब राजनीति पर उच्च वर्गों का प्रभुत्व हुआ करता था और दलित या पिछड़े वर्ग के लोगों का राजनीति में प्रवेश लगभग असंभव माना जाता था, ऐसे में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री ‘करपुरी ठाकुर’ का मुख्यमंत्री बनना भी किसी क्रांतिकारी घटना से कम नहीं था। यह वह समय था जब जातिगत भेदभाव और सामाजिक विषमताएं चरम पर थीं। दलित और पिछड़े वर्ग के नेताओं को न केवल भेदभाव का सामना करना पड़ता था, बल्कि उनके संघर्षों को भी राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर दबाने की कोशिश की जाती थी।
बिहार के एक पत्रकार के अनुसार, उनके मुख्यमंत्री चुने जाने वाले दिन की ही एक घटना से आपको अंदाजा लग जायेगा कि वो दौर कैसा था। घटना उस वक्त की है जब कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने। उसी दिन उस गांव के जमींदार ने कर्पूरी ठाकुर के दादा को अपने ड्योढ़ी पर बुला कर बेंत से पीटा था। यह वह वक्त था जब उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद गांव और आस-पास के गांवों से लोग उनके पुश्तैनी घर जश्न मना रहे थे। कर्पूरी ठाकुर के पिता जी घर आए लोगों की आवभगत कर रहे थे। इस वजह से वे स्थानीय जमींदार के घर उनकी दाढ़ी बनवाने के लिए देर से पहुंचे थे। जमींदार के घर जाना उनका नियमित का काम था। उस दिन आने में देर हुई तो वहीं के जमींदार ने देरी से आने के लिए उनके पिता को बेंत से पीटा। जब उन्हें ये बात पता चली तो वे मुख्यमंत्री चुने जाने के बावजूद जमींदार की दाढ़ी बनाने के लिए पहुँच गए।
कर्पूरी ठाकुर का नाम भारतीय राजनीति और समाजवाद की धारा में एक अमिट छाप छोड़ गया है। बिहार के इस साधारण परिवार से आए नेता ने अपनी सादगी, निष्ठा और जनता के प्रति ईमानदारी से वह कर दिखाया, जो आज भी प्रेरणा का स्रोत है। उनका जीवन सिर्फ एक व्यक्ति का संघर्ष नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और समानता की दिशा में चलाए गए एक आंदोलन का प्रतीक है।
कर्पूरी ठाकुर का जन्म 24 जनवरी 1924 को बिहार के समस्तीपुर जिले के पितौंझिया गांव (अब करपुरी ग्राम) में हुआ। उनका परिवार अत्यंत साधारण था। उनके पिता गोकुल ठाकुर नाई का काम करते थे और परिवार की आजीविका मुश्किल से चलती थी। बचपन से ही आर्थिक कठिनाइयों का सामना करते हुए करपुरी जी ने अपनी पढ़ाई जारी रखी। उन्होंने हाई स्कूल तक की शिक्षा हासिल की, लेकिन आर्थिक बाधाओं के कारण उन्हें पढ़ाई बीच में छोड़नी पड़ी।
उनका झुकाव बचपन से ही सामाजिक न्याय और समाजवाद की ओर था। पढ़ाई के दौरान ही वह महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित हुए और स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उनकी सक्रिय भागीदारी रही, जिसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा।
कर्पूरी ठाकुर स्वतंत्रता संग्राम के दौरान समाजवादी विचारधारा से जुड़े। उन्होंने राम मनोहर लोहिया के विचारों को आत्मसात किया और स्वतंत्रता के बाद भी सामाजिक बदलाव के लिए संघर्ष करते रहे। 1952 में वह पहली बार बिहार विधानसभा के सदस्य बने। उनकी राजनीति का आधार समाज के पिछड़े और दबे-कुचले वर्ग थे, जिनके अधिकारों के लिए उन्होंने जीवनभर काम किया।
कर्पूरी ठाकुर दो बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। पहली बार 1970 में और दूसरी बार 1977 में। उनके मुख्यमंत्री कार्यकाल को उनके क्रांतिकारी फैसलों के लिए याद किया जाता है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण था मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करना। यह फैसला सामाजिक न्याय की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम था, जिसने पिछड़े वर्गों को शिक्षा और रोजगार में आरक्षण का लाभ दिया।
उनकी सादगी ऐसी थी कि मुख्यमंत्री बनने के बाद भी वह अपने गांव के घर में रहते थे। सरकारी सुख-सुविधाओं से दूर, उन्होंने जनता के लिए राजनीति को सेवा का माध्यम माना। उनके कपड़े साधारण होते थे और वह आम लोगों के बीच बिना किसी भय के घुल-मिल जाते थे। राजनीति में जहां धनबल और बाहुबल का बोलबाला था, वहीं करपुरी जी ने अपने आदर्शों से जनता का विश्वास जीता।
कर्पूरी ठाकुर का निधन 17 फरवरी 1988 को हुआ। उनके निधन के बाद भी उनकी विचारधारा और योगदान को लोग याद करते हैं। उन्होंने जो राजनीतिक और सामाजिक धारा शुरू की, वह आज भी प्रासंगिक है। पिछले साल इसी दिन उन्हें भारत रत्न से नवाजा गया था।