गाजा पट्टी में एक बार फिर धमाके हो रहे हैं। इजरायल और हमास के बीच की यह जंग अब सिर्फ बमों की नहीं, बल्कि रणनीति की भी है। इस बार की जंग में एक नया मोड़ है, भारत की स्थिति।
आज हम बात करेंगे एक ऐसे संबंध की जो किताबों में नहीं, दस्तावेज़ों में नहीं, बल्कि पर्दों के पीछे तय हो रहा था। भारत और इज़रायल…दो देश जो सतह पर बिल्कुल अलग थे, लेकिन भीतर कहीं, इतिहास, संघर्ष और अस्तित्व की लहरों में एक ही सी धुन बज रही थी।
1948 में इज़रायल का जन्म हुआ। भारत ने उसे मान्यता तो दी, लेकिन औपचारिक रिश्ते नहीं बनाए। मुस्लिम बहुल देशों के साथ अपने संबंधों को देखते हुए भारत उस समय सावधान था। इज़रायल समझ रहा था, लेकिन खामोश रहा। दूसरी ओर, भारत जो तब अपनी खुद की नई पहचान और सीमाओं के संघर्ष में उलझा ये जानता था कि इज़रायल की तकनीक, खुफिया जानकारी और सैन्य ताकत उसकी सुरक्षा के लिए भविष्य में बेहद अहम हो सकती है।
1971 भारत-पाक युद्ध में भारत ने बांग्लादेश को आज़ाद कराने की लड़ाई लड़ी। इस दौरान, इज़रायल ने बिना शोर मचाए भारत को हथियार भेजे। यह वो दौर था जब दुनिया दो ध्रुवों में बंटी थी। अमेरिका और सोवियत संघ। भारत सोवियत के करीब था, इज़रायल अमेरिका के। लेकिन भारत को पता था कि अगर पाकिस्तान और चीन की मिलीभगत से कुछ असामान्य हुआ, तो इज़रायल की खुफिया एजेंसी मोसाद ही एकमात्र ताकत है जो उसे तुरंत actionable intelligence दे सकती है।
1980 के दशक में भारत और इज़रायल की खुफिया एजेंसियां RAW और Mossad ने गुप्त रूप से एक-दूसरे से संपर्क करना शुरू किया। पंजाब में खालिस्तान आंदोलन से लेकर कश्मीर की उथल-पुथल तक, कई बार इज़रायली तकनीक और सूचनाओं ने भारतीय एजेंसियों को अहम मदद पहुंचाई।
1984 में ऑपरेशन ब्लूस्टार से पहले, कहा जाता है कि इज़रायल ने भारतीय अधिकारियों को खालिस्तानी आतंकियों की हथियारों की सप्लाई चेन और विदेश में स्थित ट्रेनिंग कैंप्स की जानकारी दी थी।
1992 में, जब PV नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे, तब भारत ने आधिकारिक रूप से इज़रायल के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए। यह वो मोड़ था जहां ‘गुप्त साझेदारी’ धीरे-धीरे ‘रणनीतिक साझेदारी’ में बदलने लगी। इज़रायल ने भारत को अत्याधुनिक ड्रोन, मिसाइल और निगरानी प्रणाली देने शुरू किए।
1999 कारगिल युद्ध में भारत ने पहली बार खुले तौर पर इज़रायली हथियारों और खुफिया मदद का इस्तेमाल किया। इज़रायल ने भारत को ‘लिजर्ड’ नामक लेज़र-गाइडेड मिसाइल सिस्टम भेजा, जिससे दुश्मन की बंकर-पोज़िशन्स को निशाना बनाया गया। साथ ही, इज़रायल ने भारत को UAV (Unmanned Aerial Vehicles) उपलब्ध कराए जिससे ऊंचाई वाले इलाकों में निगरानी आसान हुई…कहा जाता है सीमा पर लड़ाई भले भारत ने लड़ी, लेकिन उसकी आंखें और कान इज़रायल से जुड़े थे।
2014 के बाद, भारत-इज़रायल संबंधों में एक नया मोड़ आया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और इज़रायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के बीच व्यक्तिगत रिश्ते ने इस साझेदारी को और भी मजबूत बना दिया।
मोदी 2017 में इज़रायल जाने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने। वहां की यात्रा सिर्फ कूटनीति नहीं, बल्कि एक दोस्ती का प्रदर्शन था। इस यात्रा में कई डिफेंस, साइबर सिक्योरिटी, एग्रीकल्चर और वॉटर मैनेजमेंट समझौतों पर हस्ताक्षर हुए।
इज़रायल की तकनीक जैसे ‘Heron’ ड्रोन, ‘Spike’ एंटी-टैंक मिसाइलें अब भारतीय सुरक्षा बलों के पास हैं। भारत की रक्षा रणनीति अब सिर्फ पाकिस्तान तक सीमित नहीं, बल्कि एक व्यापक सुरक्षा ढांचे की ओर बढ़ रही है जिसमें मध्य-पूर्व के बदले हुए समीकरण भी शामिल हैं।भारत-इज़रायल की साझेदारी ने न केवल दोनों देशों के रिश्तों को बदला, बल्कि मध्य-पूर्व की राजनीति को भी हिला दिया। UAE, सऊदी अरब जैसे देश, जो पहले इज़रायल से दूरी बनाए रखते थे, अब भारत की बदौलत कूटनीतिक रास्ते खोल रहे हैं।
भारत-इज़रायल की साझेदारी की सबसे बड़ी ताकत इसकी गुप्त प्रकृति रही है। न यह कभी दुनिया के सामने पूरी तरह उजागर हुई, न ही यह कभी खत्म हुई। यह साझेदारी सिर्फ हथियारों और सूचनाओं तक सीमित नहीं यह विश्वास और उद्देश्य की साझेदारी है।
मध्य पूर्व में आज जो ‘अब्राहम समझौते’ से लेकर ईरान-इज़रायल की तनातनी तक जो कुछ भी हो रहा है, उसमें भारत का स्थान अब केवल एक दर्शक का नहीं रहा। भारत अब एक स्मार्ट गेम चेंजर की भूमिका में है और यह बदलाव शुरू हुआ था, बहुत साल पहले, जब दिल्ली और तेल अवीव के बीच पहली बार गुप्त रूप से एक classified file की अदला बदली हुयी जिसके बारे में बहुत जानकारी कहीं नहीं मिलेगी।