भारतीय सिनेमा का विश्लेषण या इतिहास पर जब भी बात की जायेगी तो कुछ नामों का जिक्र बार – बार आता रहेगा। सत्यजित रे, मृणाल सेन उनमे से कुछ अहम नाम है। लेकिन ऋत्विक घटक के नाम के बिना उस दौर मे समानांतर सिनेमा को जिवित रखने वाली ये महान ‘त्रयी’ अधूरी है। ये वे नाम है जिसे आनेवाली पीढ़ी कभी नहीं भूल पायेगी और इनके द्वारा बनाये गये सिनेमा से लोग भविष्य मे भी सीखते रहेंगे।
ऋत्विक घटक का जन्म आज ही के दिन हुआ था। उनका जन्म 4 नवंबर 1925 को उस समय की बंगाल प्रेसीडेंसी के ढाका जो अब बांग्लादेश का हिस्सा है उसके राजशाही शहर में हुआ था। घटक का जीवन और उनके सिनेमा का हर पहलू किसी तीव्र यथार्थ और गहरे भावनात्मक जुड़ाव से भरा हुआ है। सन् 1947 के भारत विभाजन के बाद ऋत्विक घटक का परिवार हिंदुस्तान आ गया। घटक के पैतृक मकान के कुछ अंश अब भी है, जीर्ण-शीर्ण हालत में… क्यूंकि कुछ समय पहले जब पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना के देश से चले जाने के बाद बांग्लादेश में राजनीतिक अशांति फैली तब घटक के पैतृक मकान को भी ध्वस्त कर दिया गया। वह घर बांग्लादेश की सांस्कृतिक विरासत माना जाता था। जो घटक के शुरुआती जीवन और कलात्मक विकास का प्रतीक भी था। हालांकि यह कोई पहला मौका नहीं था जब किसी तरह के विभाजन का दंश घटक के नाम के साथ जुड़ा हो। घटक के जीवन के साथ – साथ उनकी फिल्मों में देश-विभाजन और स्वाधीनता के बाद खासकर साठ के दशक के बीचोंबीच का समय तथा विभाजन की पीड़ा साफ तौर पर देखी जा सकती है।
ऋत्विक घटक में साहित्य और संस्कृति के प्रति जागरूकता बचपन से थीं। उनके के पिता का नाम था सुरेशचंद्र घटक और मां का नाम था इंदुबाला देवी। पूरा परिवार शुरू से ही साहित्य मे रुचि रखता था। बहुत कम लोगों को मालूम है ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त मशहूर लेखिका महाश्वेता देवी फिल्मकार ऋत्विक घटक की भतीजी थीं। महाश्वेता देवी को लेखन विरासत में मिला था, क्योंकि उनके पिता यानी ऋत्विक घटक के बड़े भाई मनीष घटक खुद भी अच्छी कविताएं लिखा करते थे।
रित्विक घटक की सबसे खास बात यह थी कि उन्होंने सिनेमा को महज मनोरंजन का साधन नहीं माना। उनके लिए सिनेमा एक माध्यम था समाज को उसकी सच्चाई से रूबरू कराने का, एक ऐसा माध्यम जो दर्द, पीड़ा और संघर्ष को दर्शाता है। उनके फिल्में, खासकर – मेघे ढाका तारा, सुभर्नरेखा और कोमल गंधार बंगाल में विभाजन के दर्द और विस्थापन की त्रासदी को बेहद संवेदनशीलता के साथ पेश करती हैं। उनकी फिल्मों में यथार्थवाद, मानवता और सामजिक पीड़ा के तत्व प्रमुखता से देखने को मिलते हैं क्यूंकि विस्थापित हुए लोगों की पीड़ा को घटक ने अपने जीवन में खुद महसूस किया था।
बतौर निर्देशक ऋत्विक घटक की पहली बांग्ला फिल्म थी ‘नागरिक’ और दूसरी फीचर फिल्म थीं ‘अजांत्रिक’ (पेथैटिक फैलेसी)। अपने छोटे लेकिन बेहद प्रभावशाली फिल्मी करियर में उन्होंने कुल आठ फीचर फिल्मों का निर्देशन किया था। इसके अलावा वे दो हिंदी फिल्मों के साथ भी जुड़े थे। इनमें एक थी ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘मुसाफिर’ और दूसरी विमल राय की फिल्म ‘मधुमती’।
रित्विक घटक की महानता उनके काम के उस दृष्टिकोण में है जो उन्होंने अपने समय से कहीं आगे जाकर प्रस्तुत किया। उन्होंने पारंपरिक कहानी कहने की शैली को चुनौती दी और अपनी फिल्मों में प्रयोग किए। चाहे वह फिल्म का संगीत हो, अभिनय हो, या कैमरा वर्क, घटक की हर फिल्म में एक प्रयोगात्मक दृष्टिकोण साफ दिखाई देता है। उनके संवाद काव्यात्मक होते थे और पात्रों की गहराई इतनी सहजता से उभरती थी कि दर्शक उनमें डूब जाते थे। घटक की फिल्मों में लोककथाओं और भारतीय संस्कृति का अद्भुत समावेश मिलता है जो उन्हें खास बनाता है।
रित्विक घटक का योगदान सिर्फ उनके फिल्मों तक सीमित नहीं है। उन्होंने सिनेमा में जो शैली और दृष्टिकोण दिया, उसने अगली पीढ़ियों के फिल्मकारों को प्रेरित किया। सत्यजीत रे और मृणाल सेन जैसे उनके समकालीनों ने भी उनके दृष्टिकोण और विचारों का आदर किया। हालांकि, घटक को उनके जीवनकाल में वह पहचान नहीं मिली जो आज उन्हें प्राप्त है, फिर भी उनकी फिल्मों का प्रभाव अब भी भारतीय सिनेमा पर देखा जा सकता है।
रित्विक घटक का सिनेमा आज भी प्रासंगिक है। उनकी फिल्मों में जो दर्द, संघर्ष, और मानवीय करुणा है, वह आज भी दर्शकों को छूता है। वर्तमान समय में जब सिनेमा के माध्यम से समाज के कठिन मुद्दों पर बात करने की जरूरत है, घटक की फिल्में हमें दिखाती हैं कि सिनेमा कैसे सच्चाई को सामने ला सकता है और एक सामाजिक बदलाव ला सकता है। उनकी महानता इसी में है कि उन्होंने सिनेमा के माध्यम से समाज को उसके अंधेरों से अवगत कराया और उस दर्द को व्यक्त किया जो आमतौर पर समाज में दबा रहता है।