19 अक्टूबर 1689…रायगढ़ का किला, जो कभी मराठा साम्राज्य की शान था, अब घिर चुका था। मुगल सेना चारों ओर से किले पर अपना शिकंजा कस चुकी थी। छत्रपति शिवाजी महाराज के उत्तराधिकारी संभाजी राजे मुगलों के हाथों गिरफ़्तार हो चुके थे और उनका अंत भी क्रूरता से हुआ था। अब मराठा साम्राज्य की बागडोर उनके परिवार और उनकी रानी येसुबाई के हाथों में थी।
रायगढ़ के किले की दीवारों से दूर तक नज़र दौड़ाई तो येसुबाई को सिर्फ धूल और आग का गुबार दिखाई दे रहा था। अंदर उनकी आंखों में एक अलग ही संघर्ष था। एक ओर कर्तव्य का बोझ और दूसरी ओर अपने पुत्र शाहू की सुरक्षा की चिंता। मुगलों की ओर से बार-बार संदेश आ रहे थे। अगर येसुबाई और उनके पुत्र ने आत्मसमर्पण नहीं किया, तो किला ध्वस्त कर दिया जाएगा, और मराठा साम्राज्य का अंत तय था।
किले के आंगन में चलते हुए येसुबाई को संभाजी महाराज की यादें घेर रहीं थीं लेकिन अब सबकुछ धूमिल हो चुका था, और सच्चाई एक भारी पत्थर की तरह उनके कंधों पर आ गिरी थी। उन्होंने निर्णय लिया। अपनी रानी होने की भूमिका से ज़्यादा एक मां के रूप में। येसुबाई जानती थीं कि अगर उन्होंने किला नहीं छोड़ा, तो उनके बेटे शाहू की जान जोखिम में पड़ जाएगी। किले के आत्मसमर्पण का निर्णय उनके जीवन का सबसे कठिन निर्णय था, लेकिन यह उनके पुत्र और मराठा वंश की सुरक्षा के लिए आवश्यक था। येसुबाई ने मुगलों के सामने आत्मसमर्पण करने का निर्णय लिया रायगढ़ का किला औपचारिक रूप से मुगलों के कब्ज़े में चला गया।
किले का आत्मसमर्पण सिर्फ एक राजनीतिक कदम नहीं था, यह मराठा साम्राज्य के लिए एक गहरी चोट थी। येसुबाई और शाहू को बंदी बना लिया गया, और मराठाओं के लिए संघर्ष का एक नया अध्याय शुरू हुआ।
रायगढ़ किले के आत्मसमर्पण के बाद येसुबाई और उनके बेटे शाहू को मुगलों द्वारा बंदी बना लिया गया। मुगल सम्राट औरंगज़ेब ने उन्हें अपनी राजधानी औरंगाबाद ले जाकर कैद कर लिया। मराठा साम्राज्य के लिए यह एक कठिन समय था, क्योंकि उनके प्रमुख नेता संभाजी को पहले ही मार दिया गया था और अब उनके उत्तराधिकारी शाहू और उनकी मां येसुबाई भी मुगलों के कब्जे में थे।
आगे की घटनाओं में, शाहू को औरंगज़ेब ने एक तरह से राजनैतिक मोहरा बनाने की कोशिश की। उन्होंने शाहू को कैद में रखा, लेकिन अच्छी देखभाल की, ताकि भविष्य में मराठा नेतृत्व को विभाजित किया जा सके। औरंगज़ेब की योजना थी कि अगर शाहू को अपने पक्ष में कर लिया जाए, तो मराठा साम्राज्य में फूट डालना आसान होगा।
हालांकि, इस बीच मराठा साम्राज्य की बागडोर संभाजी के छोटे भाई राजाराम ने संभाली। राजाराम ने प्रतापगढ़ किले से संघर्ष जारी रखा और मराठाओं ने गुरिल्ला युद्ध की नीति अपनाई, जिससे मुगलों को कड़ी चुनौती मिलती रही। राजाराम के नेतृत्व में मराठाओं ने दक्षिण भारत के कई क्षेत्रों में विद्रोह किया और मुगलों के खिलाफ अपना संघर्ष जारी रखा।
1707 में औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद स्थिति बदलने लगी। उसके बाद उत्तराधिकार के संघर्ष में मुगल साम्राज्य कमजोर हो गया। शाहू को मुगलों ने 1707 में रिहा कर दिया, ताकि मराठा साम्राज्य के अंदर सत्ता संघर्ष पैदा हो सके। शाहू ने अपने रिहाई के बाद मराठा सिंहासन का दावा किया, लेकिन उस समय मराठा साम्राज्य में ताराबाई, जो राजाराम की विधवा थीं, के पक्ष की सत्ता थी।
इसके बाद मराठा साम्राज्य में आंतरिक संघर्ष शुरू हो गया, जिसे शाहू ने बाद में पेशवा बालाजी विश्वनाथ की सहायता से सुलझाया। शाहू ने अंततः मराठा साम्राज्य की बागडोर अपने हाथों में ली और उसे मजबूत किया, जिससे मराठा शक्ति फिर से उभरने लगी।
येसुबाई का त्याग और शाहू की कैद का यह कठिन समय मराठा इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय रहा। इस संघर्ष के बाद मराठा साम्राज्य ने फिर से शक्ति हासिल की और औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद मुगलों की स्थिति कमजोर हो गई। शाहू और येसुबाई का धैर्य और साहस मराठा इतिहास में एक प्रेरणादायक घटना के रूप में याद किया जाता है।