29 नवंबर, 1948 का दिन भारतीय संविधान सभा के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हुआ। इस दिन संविधान सभा ने समाज में व्याप्त छुआछूत और जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के लिए एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया। भारतीय समाज में जातिगत भेदभाव और छुआछूत की समस्या लंबे समय से जड़ें जमाए हुए थी, और इस फैसले ने सामाजिक सुधार की दिशा में एक नई उम्मीद जगाई।
भारत में जाति व्यवस्था का इतिहास हजारों वर्षों पुराना है। इसमें विशेष रूप से शूद्रों और अछूतों के साथ भेदभाव और अमानवीय व्यवहार किया जाता था। उन्हें मंदिरों में प्रवेश करने, सार्वजनिक स्थलों का उपयोग करने, और शिक्षा तथा रोजगार के अधिकारों से वंचित रखा जाता था। इस सामाजिक अन्याय के खिलाफ 19वीं और 20वीं सदी में कई समाज सुधारकों ने आंदोलन किए।
महात्मा गांधी ने छुआछूत को भारत के सामाजिक विकास में सबसे बड़ा रोड़ा बताया और “हरिजन” आंदोलन की शुरुआत की। वहीं, डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इसे एक कानूनी और संरचनात्मक समस्या के रूप में देखा और इसे समाप्त करने के लिए संवैधानिक उपायों की मांग की।
संविधान सभा ने 26 नवंबर, 1949 को संविधान का मसौदा तैयार करने के दौरान छुआछूत के मुद्दे को गंभीरता से लिया। डॉ. अंबेडकर, जो संविधान के मुख्य शिल्पकार थे, ने इसे मानव अधिकारों के खिलाफ बताया और कहा कि अगर भारत को एक प्रगतिशील राष्ट्र बनाना है, तो छुआछूत जैसी प्रथाओं का उन्मूलन आवश्यक है।
29 नवंबर, 1948 को इस विषय पर व्यापक चर्चा हुई। सभा में कई सदस्यों ने अपने विचार प्रस्तुत किए। अधिकांश ने इसे समाप्त करने की जरूरत पर बल दिया।
इस ऐतिहासिक चर्चा के बाद, संविधान सभा ने अनुच्छेद 17 को पारित किया। इसमें स्पष्ट रूप से लिखा गया:
“अस्पृश्यता समाप्त की जाएगी और इसका कोई भी रूप कानून के द्वारा दंडनीय होगा।”
यह अनुच्छेद न केवल छुआछूत को समाप्त करने का आह्वान करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि जो कोई भी इस कानून का उल्लंघन करेगा, उसे सजा दी जाएगी। यह फैसला भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों के तहत समानता और सम्मान का अधिकार प्रदान करता है। छुआछूत के खिलाफ यह कानूनी ढांचा सामाजिक न्याय सुनिश्चित करता है। यह कदम जातिगत भेदभाव को समाप्त करने और समतावादी समाज की स्थापना के लिए एक मजबूत नींव बना।
1955 में अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम पारित किया गया, जिसे बाद में 1976 में सिविल राइट्स एक्ट के रूप में संशोधित किया गया। इस कानून ने अस्पृश्यता को दंडनीय अपराध घोषित किया। इसके साथ ही, आरक्षण नीति और अन्य सामाजिक कल्याण योजनाओं ने अछूतों के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
हालांकि, यह भी सत्य है कि छुआछूत और जातिगत भेदभाव समाप्त करने की यह प्रक्रिया आज भी पूरी तरह सफल नहीं हो पाई है। ग्रामीण क्षेत्रों और सामाजिक रूप से पिछड़े इलाकों में जातिगत भेदभाव अब भी देखने को मिलता है।
डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इस मुद्दे पर एक अमूल्य योगदान दिया। उन्होंने संविधान सभा में अपने भाषणों के माध्यम से न केवल छुआछूत बल्कि जाति व्यवस्था को भी खत्म करने की वकालत की।
29 नवंबर, 1948 का यह फैसला भारतीय संविधान सभा की प्रगतिशील दृष्टि को दर्शाता है। यह न केवल भारत के लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि हर भारतीय को समानता, स्वतंत्रता, और गरिमा के साथ जीने का अधिकार मिले।
आज, जब हम इस ऐतिहासिक दिन को याद करते हैं, तो हमें यह भी संकल्प लेना चाहिए कि हम जातिगत भेदभाव और छुआछूत के खिलाफ लड़ाई को तब तक जारी रखेंगे, जब तक समाज पूरी तरह से समान और न्यायपूर्ण नहीं बन जाता।