आज 28 सितंबर यानी ‘भगत सिंह’ जी के जन्म दिवस पर एक किस्सा याद आ रहा है। जब ‘भांगा वाला’ यानी बालक भगत लगभग 4 साल के थे, तो एक दिन अपने बाबा के साथ लाहौर गए। जब सरदार जी अपने मित्र मेहता आनंद किशोर जी से मिलने गए तो मेहता जी ने बालक भगत को देखते ही प्यार से गोद में बिठा लिया। उनसे पंजाबी में बात करने लगे और पूछा-
मेहता जी- तेरा नाम क्या है?
बालक- भगत सिंह।
मेहता जी- गांव में क्या करता है?
भगत सिंह- खेलता हूं, खेत पर जाता हूं।
मेहता जी- बड़ा होकर क्या करेगा?
भगत सिंह- खेती करूंगा।
मेहता जी- खेत में क्या बोएगा?
भगत सिंह- दबूंका (बंदूक) बोऊंगा।
जिस बालक भगत सिंह ने उनकी तोतली बोली मे बंदूक को दबूंका कहा था। बाद मे उनके विचार और शब्द इतने धारदार होते गए कि उनके कहे शब्दों के ‘धमाकों से बहरे कानों के पर्दे तक फट गए’।
भगत सिंह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे प्रतिष्ठित और प्रभावशाली क्रांतिकारियों में से एक थे। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि भगत सिंह सिर्फ एक महान क्रांतिकारी ही नहीं, बल्कि एक बेहतरीन लेखक और विचारक भी थे। उनकी लेखनी और उनके विचार, जो उन्होंने विभिन्न लेखों, पत्रों और निबंधों के माध्यम से प्रस्तुत किए, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के विचारधारात्मक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भगत सिंह को सिर्फ एक वीर शहीद के रूप में जाना जाता है, लेकिन वे एक गंभीर लेखक, पाठक और चिंतक भी थे, जिनके लेख आज भी प्रासंगिक हैं।
भगत सिंह की लेखनी में एक खास गहराई और तर्कसंगतता थी। उनके लेखों में सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों की गहन समझ दिखती है। भगत सिंह ने अपने लेखों के माध्यम से न सिर्फ ब्रिटिश शासन की आलोचना की, बल्कि उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों और अंधविश्वासों पर भी प्रहार किया। वे एक समाजवादी दृष्टिकोण रखते थे और मानते थे कि सच्ची स्वतंत्रता तब मिलेगी जब समाज से आर्थिक और सामाजिक असमानता को खत्म किया जाएगा।
17 साल की उम्र तक भगत सिंह ने बौद्धिक परिपक्वता हासिल कर ली थी। उन्होंने पंजाब के भाषा मुद्दे पर हिंदी में एक पुरस्कार विजेता निबंध लिखा, जिसमें उन्होंने एक लेखक के रूप में अपनी विचारों की स्पष्टता और प्रतिभा का परिचय दिया। इस शुरुआती पहचान ने उनके लेखन के माध्यम से स्वतंत्रता आंदोलन को प्रभावित करने की उनकी क्षमता का संकेत दिया।
1924 और 1925 में, बलवंत सिंह के छद्म नाम से, भगत सिंह ने “विश्व प्रेम” (“दुनिया से प्यार”) और “युवक” नामक रचनाएँ लिखीं, जो ‘मतवाला’ में प्रकाशित हुईं। 1926 में छह बब्बर अकाली क्रांतिकारियों की फांसी के बारे में लिखा गया उनका लेख “होली के दिन रक्त के छींटे” (“होली के दिन खून की बूंदें”) व्यापक लोकप्रियता हासिल करने में विफल रहा, जो व्यापक दर्शकों तक पहुँचने में उनके लिखित कार्यों की चुनौतियों को दर्शाता है।
जेल में रहते हुए, भगत सिंह ने कई पांडुलिपियाँ लिखीं। कुछ प्रकाशित हुईं, कुछ नष्ट हो गईं और कई अभी भी अप्रकाशित हैं। इस अवधि की उल्लेखनीय कृतियों में “समाजवाद का आदर्श”, “आत्मकथा”, “भारत में क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास”, “मृत्यु के द्वार पर” और “जेल नोटबुक” शामिल हैं। ये लेखन कैद में भी उनकी अडिग भावना और बौद्धिक गहराई को उजागर करते हैं।
उनके निबंध “मैं नास्तिक क्यों हूँ” को 27 सितंबर, 1931 को लाहौर से लाला लाजपत राय के अख़बार पीपल के अंक में प्रकाशित किया गया था, जो उनकी फांसी के कुछ महीने बाद प्रकाशित हुआ था, जिसमें नास्तिकता पर उनके विचार व्यक्त किए गए थे। इस निबंध ने लेखन में उनकी दक्षता और उनकी उम्र से परे उनकी परिपक्वता को और भी अधिक प्रदर्शित किया। इस निबंध में भगत सिंह ने ईश्वर और धर्म के प्रति अपने विचार स्पष्ट किए हैं। उन्होंने तर्कों के आधार पर यह समझाने की कोशिश की कि क्यों वे नास्तिक हैं। यह लेख उनके विचारशीलता और उनके आत्मनिरीक्षण की क्षमता का प्रतीक है। भगत सिंह ने लिखा, “मुझे ऐसा कोई कारण नहीं दिखाई देता कि मैं ईश्वर पर विश्वास करूं।” इस लेख ने उनके तर्कशक्ति और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को प्रमाणित किया।
भगत सिंह ने भारत के युवाओं के लिए कई लेख लिखे, जिनमें उन्होंने युवाओं से समाजवादी विचारधारा अपनाने और सामाजिक न्याय के लिए लड़ने की अपील की। वे मानते थे कि युवाओं को क्रांतिकारी विचारधारा अपनाकर समाज में बदलाव लाना चाहिए। इस लेख में उन्होंने युवाओं को बताया कि कैसे वे क्रांति के माध्यम से एक बेहतर समाज की स्थापना कर सकते हैं।
इस लेख में भगत सिंह ने विद्यार्थियों को राजनीति से जोड़ने की बात कही। उनका मानना था कि विद्यार्थी समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं, और उन्हें समाज और राजनीति से अलग नहीं रहना चाहिए। वे चाहते थे कि भारतीय विद्यार्थी अपने देश की समस्याओं को समझें और उनके समाधान के लिए सक्रिय रूप से राजनीति में भाग लें।
भगत सिंह ने जेल में रहते हुए भी कई पत्र और डायरी के अंश लिखे, जिनमें उनके विचार और क्रांतिकारी दृष्टिकोण को विस्तार से समझा जा सकता है। इन पत्रों में उन्होंने अपने साथियों, परिवार और समर्थकों को अपने विचारों से अवगत कराया और उन्हें स्वतंत्रता संग्राम के प्रति जागरूक किया। वे एक ऐसे लेखक थे, जो समाज के सबसे जटिल मुद्दों को सरल और प्रभावी ढंग से प्रस्तुत कर सकते थे।
भगत सिंह ने मात्र 23 साल की उम्र में जिस विचारशीलता के साथ लेखन किया, वह अद्वितीय है। उनकी सोच समय से आगे की थी, और उनका लेखन भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं पर गहन दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। उन्होंने अपने लेखों में धार्मिक कट्टरता, जातिगत भेदभाव, और आर्थिक असमानता के खिलाफ आवाज उठाई, जो आज भी हमारे समाज के लिए प्रासंगिक मुद्दे हैं।
भगत सिंह की रचनाओं को समग्रता में पढ़ना और समझना हमें उनके व्यक्तित्व के एक नए पहलू से परिचित कराता है। उनके लेखन से पता चलता है कि वे भारतीय समाज को न केवल स्वतंत्र देखना चाहते थे, बल्कि एक न्यायपूर्ण, समतामूलक और सामाजिक दृष्टिकोण से परिपूर्ण समाज की स्थापना करना चाहते थे।
भगत सिंह को जिस रूप में आज देखा जाता है, वह उनकी संपूर्ण छवि नहीं है। उन्हें सिर्फ एक क्रांतिकारी के रूप में देखना उनके व्यक्तित्व के अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं की अनदेखी करना होगा। वे एक उत्कृष्ट लेखक और विचारक थे, जिनके लेख और विचार आज भी हमें सोचने पर मजबूर करते हैं। उनकी लेखनी ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान और उसके बाद के भारत में विचारधारात्मक आंदोलनों को प्रेरित किया है। भगत सिंह को उनके लेखन के लिए भी उतना ही सम्मान मिलना चाहिए, जितना कि उनके क्रांतिकारी कार्यों के लिए मिलता है।