जब एक कवि अपनी आत्मा से एक कविता रचता है, तो वह सिर्फ शब्द नहीं गढ़ रहा होता, वह अपने समय, समाज, आक्रोश और प्रेम की दस्तावेज़ी कर रहा होता है। आमिर अज़ीज़ की कविताएँ भी कुछ ऐसी ही हैं…प्रतिरोध और जनचेतना की ज़ुबान, जो हाशिए पर खड़े लोगों की बात करती हैं। लेकिन जब इन्हीं कविताओं को बिना अनुमति, बिना श्रेय और बिना मुआवज़े के इस्तेमाल किया जाता है और वह भी एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकार द्वारा तो यह सिर्फ चोरी नहीं, एक सांस्कृतिक हिंसा बन जाती है।
कवि और गीतकार आमिर अज़ीज़ ने हाल ही में सोशल मीडिया पर यह खुलासा किया कि उनकी प्रसिद्ध कविता “सब याद रखा जाएगा” के अंशों को प्रसिद्ध कलाकार अनीता दुबे ने अपनी प्रदर्शनी ‘तीमंज़िला घर’ में बिना उनकी जानकारी, अनुमति या श्रेय के शामिल किया है। यह प्रदर्शनी दिल्ली के प्रसिद्ध Vadehra Art Gallery में लगी थी।
अनीता दुबे ने बाद में इस पर माफ़ी माँगी और इसे “एक नैतिक चूक” बताया, लेकिन सवाल यह है कि क्या यह मात्र चूक है? या यह उस बड़ी मानसिकता का हिस्सा है जहाँ साहित्य, विशेषकर हिंदी और उर्दू के कवियों के काम को केवल एक ‘सामग्री’ की तरह देखा जाता है जिसे किसी भी आधुनिक कलाकृति में ‘एस्थेटिक’ एलिमेंट के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है?
यह सिर्फ आमिर अज़ीज़ का मामला नहीं है। ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ कवियों की रचनाओं को कॉर्पोरेट ब्रांड्स, इवेंट्स, विज्ञापन एजेंसियाँ और यहाँ तक कि अन्य कलाकार भी बिना अनुमति के इस्तेमाल करते हैं। चाहे वह फैज़ की “हम देखेंगे” हो या दुष्यंत कुमार की “हो गई है पीर पर्वत सी”…इन पंक्तियों को अक्सर ‘क्रांतिकारी टैगलाइन’ की तरह प्रस्तुत किया जाता है, पर कवि का नाम नदारद होता है।
इसे हम साहित्य का उपभोग कहेंगे ना कि सम्मान करना। आज सोशल मीडिया पर कवियों की लोकप्रियता तो है, लेकिन वही मुख्यधारा के कला और बाज़ार तंत्र में उन्हें जगह नहीं मिलती। कविता को एक “बैकग्राउंड वॉइस” समझ लिया गया है…कुछ सुंदर, कुछ गूढ़, लेकिन कलाकृति के पीछे का कलाकार ही धुँधला-सा।
जब पेंटिंग, इंस्टॉलेशन या फिल्मों के लिए कॉपीराइट का ध्यान रखा जाता है, तो कविता क्यों इस चर्चा से बाहर रह जाती है? क्या शब्दों की कोई कीमत नहीं होती?
अधिकांश स्वतंत्र कवि आज भी आर्थिक रूप से बेहद कमज़ोर हैं। ऐसे में अगर कोई नामी कलाकार उनकी कविता का उपयोग कर लाखों में कला बेचता है और कवि को उसका हिस्सा नहीं मिलता तो इसे अन्याय ही कहना चाहिए।
यह स्वागतयोग्य है कि अनीता दुबे ने माफ़ी माँगी, लेकिन क्या यही पर्याप्त है? क्या बड़े नाम सिर्फ ‘माफ़ी’ से बच निकल सकते हैं? यह माफ़ी अगर सार्वजनिक है तो क्या उस प्रदर्शनी के मीडिया कवरेज और आर्टवर्क के सभी संदर्भों में आमिर अज़ीज़ का नाम जोड़ा गया है? क्या भविष्य में उन्हें इसका श्रेय और मुआवज़ा मिलेगा?
सवाल है कि हम कविता और कवियों के साथ क्या कर रहे हैं? कविता सिर्फ कला नहीं, संस्कृति की आत्मा है। उसे इग्नोर करना, चुपचाप चुरा लेना, या बिना नाम दिए उपयोग करना यह सब कविता की मौत नहीं तो और क्या है?
हम एक ऐसे दौर में हैं जहाँ शॉर्ट फॉर्म, ट्रेंडिंग ऑडियो और रील्स ने गंभीर लेखन को हाशिए पर पहुँचा दिया है। ऐसे में अगर कवियों को भी उनके अधिकार से वंचित किया जाएगा, तो हम अपनी भाषाई विरासत, विचारों की विविधता का गला खुद घोंट रहे हैं।
‘सब याद रखा जाएगा’ एक कविता भर नहीं है वह हमारी collective memory का हिस्सा बन चुकी है। लेकिन अगर हम याद ही न रखें कि इसे किसने लिखा, क्यों लिखा, और किसने इसका दोहन किया तो हम क्या याद रखेंगे? “इस देश को ये सीखना होगा कि शब्दों का मूल्य सिर्फ साहित्य में नहीं, नैतिकता में भी होता है।”